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यदि कषाय निर्बल बनें तो ही संयम की यात्रा एवं गिरिराज की यात्रा भी सफल होती है ।
कषाय अशक्त न बनें तो कितने ही ओघे लें या कितनी ही बार गिरिराज पर जाकर आयें, परन्तु हमारा काम नहीं होगा । इसे यात्रा नहीं कह सकते । केवल चढ़-उतर कह सकते हैं, अधिक कहे तो पर्वतारोहण रूप कसरत कह सकते हैं । इसे संयम नहीं कहा जाता, केवल काय-क्लेश कह सकते हैं ।
* सुख बुरा है कि दुःख ?
सुख में आनन्द होता है, यह सत्य है, परन्तु यदि उसमें (रसऋद्धि-साता गारव रूप सुख) आसक्त बनें तो आत्मा के अव्याबाध सुख से दूर ही रहेंगे ।
जिस दुःख को सहन करने से कर्मों की निर्जरा हो, आत्मा की शुद्धि हो, आत्मानन्द की झलक प्राप्त हो, उस दुःख को दुःख कैसे कहा जायेगा ?
इसीलिए ज्ञानियों की दृष्टि में सुख, दुःख है और दुःख सुख है। मुनि जब दुःख को सुख माने, सुख को दुःख माने तब मोक्ष-सुन्दरी दौड़ती-दौड़ती उसके पास आ जाती है, ऐसा 'योगसार' में उल्लेख है।
यदा दुःखं सुखत्वेन, दुःखत्वेन सुखं यदा ।। मुनिर्वेत्ति तदा तस्य, मोक्षलक्ष्मीः स्वयंवरा ।
- योगसार * आज एक आराधक (भारमल हीरजी, घाणीथर, कच्छवागड़) आत्मा की शत्रुजय पर चढ़ते-चढ़ते समवसरण मन्दिर से तनिक ऊपर जाते समय मृत्यु हो गई। अत्यन्त समाधि पूर्वक नवकार श्रवण करते हुए सिद्धाचल की पुन्य भूमि पर उनकी मृत्यु हो गई । मांगने से भी न मिले वैसी उनको मृत्यु मिली ।
मृत्यु अचानक आकर आक्रमण करती है। अपने पास कोई आराधना की सम्पत्ति नहीं हो तो उस समय समाधि कैसे रहेगी ? समाधि के बिना सद्गति कैसे मिलेगी ?
दूसरे की मृत्यु में स्व-मृत्यु के निरन्तर दर्शन करो । मेरी ही यह भावी घटना है, ऐसे देखो तो आपका वैराग्य दिनप्रतिदिन बढ़ता रहेगा ।
[३५०00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)