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गुणाधिरोपेण ममाऽसि साक्षात् । भानुदेवीयानपि दर्पणेऽशु - सङ्गान्न कि द्योतयते गृहान्तः ॥
हे प्रभु...! आप भले मोक्ष में गये है, तो भी निर्मल चित्त में गुण के आरोप से आप मेरे लिए साक्षात् हैं । दूर स्थित सूर्य भी दर्पण में संक्रान्त बनकर घर को आलोकित करता ही है न ?
ये परमार्हत महाराजा कुमारपाल के उद्गार हैं ।
सूर्य भले आकाश में है, प्रकाश हमारे पास है। भगवान भले मुक्ति में हैं, परन्तु उनकी कृपा का अनुभव भक्त के हृदय में है।
ऐसे घोर काल में भगवान के बिना प्रसन्नता है ही कहां ? भगवान की कृपा का यदि अनुभव नहीं होता हो तो भक्त के लिए जीना कठिन हो जाता है ।
___ आप अपना चित्त निर्मल बनायें तो प्रभु आपके भीतर प्रकाश फैलाने के लिए तैयार हैं। प्रभु की आज्ञा क्या है ?
आज्ञा तु निर्मलं चित्तं, कर्त्तव्यं स्फटिकोपमम् ।
- योगसार चित्त को स्फटिक तुल्य उज्जवल बनाना ही भगवान की आज्ञा है । चित्त को निर्मल बनाने की साधना यह है ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र का प्रतिदिन सेवन करें । कषायों को क्षीण करते रहें ।
चित्त उज्ज्वल बनेगा ही । चित्त उज्ज्वल बनेगा तब प्रभु हृदय में आयेंगे ही ।
* भगवान केवलज्ञान के रूप में विश्व व्यापक हैं, इस प्रकार कल्पसूत्र की टीका में (गणधरवाद में) उल्लेख है।
भगवान गुणों के रूप में सम्पूर्ण विश्व में फैले हुए है, मानतुंगसूरि ने भक्तामर में यह कहा है। विश्व-व्यापी ये विभु हृदय में बसे हुए ही हैं । ये घट-घट के अन्तर्यामी हैं । केवल आपको उस ओर दृष्टि करनी है ।
[३४८00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)