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________________ सकें । सामने वाला चाहे जितना उग्र आक्रमण करे, फिर भी हम कषायों को खड़े न होने दें तो समझ लें कि कषाय रूपी भूत की चोटी हाथ में आ गई है हमने कषायों का निग्रह किया है । कषाय रूपी लुटेरे हमारे मूल्यवान असंक्लिष्ट चित्त-रत्न को चुरा लेते हैं । ऐसे लुटेरों को कैसे आश्रय दें ? चित्त-रत्न असंक्लिष्ट बनते ही तत्क्षण प्रभु का हमारे भीतर आगमन होता है । जल में तरंगों के शान्त होते ही तत्क्षण आकाश में चन्द्रमा प्रतिबिम्बित होता है । उस समय ऐसा आनन्द आता है, इतना प्रकाश होता है, इतनी उष्मा प्रकट होती है कि भक्त “भगवन् ! अब आप कदापि मुझ से दूर मत होना ।" "मन घरमां धरिया घर शोभा, देखत नित्य रहेशो थिर थोभा... " - प्रभु ! आपसे ही मेरे मन का घर सुशोभित है । आपके जाने पर यह वीरान हो जाता है । आप मेरे मन की शोभा हैं । आप मेरे मन का आनन्द हैं । सर्वस्व हैं । कृपा करके अब जायें नहीं । मन तो सबका चंचल है, परन्तु धीरे धीरे इसे प्रभु में स्थिर करना है । आप लिख रखें कि प्रभु-प्राप्ति के बिना मन कदापि स्थिर नहीं होगा । भगवान चाहे दूर हैं, परन्तु भक्ति से समीप हैं । पतंग चाहे दूर है, परन्तु डोरी से निकट है। पतंग रूपी प्रभु को पकड़ रखने हों तो भक्ति की डोरी छोड़ना मत । डोरी छूट गई तो पतंग गई । भक्ति छूटी तो भगवान गये । साक्षात् भगवान की उपस्थिति में भी भगवान को पकड़कर हृदय में नहीं बिठा सकते हैं, उनके प्रति भक्ति से ही उन्हें हृदय में बिठा सकते हैं । शास्त्र निषेध करते हैं कि मोक्ष में गये हुए भगवान पुनः लौटकर आते नहीं हैं । भक्त कहता है कि भगवान आते हैं । दोनों बातें सत्य हैं । आत्म द्रव्य के रूप में भगवान चाहे नहीं आते, परन्तु उपयोग रूप में अवश्य आते हैं । मुक्ति गतोऽपीश विशुद्धचित्ते । कहे कलापूर्णसूरि २ WWWWWW - ० ३४७
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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