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________________ आत्मानन्द की रमणता तो चारित्र मोहनीय क्षयोपशम से ही अनुभव की जाती है । * दूसरे का दुःख स्व में संक्रान्त हो तब कहा जा सकता है कि अब करुणा का, अनुकम्पा का आविर्भाव हुआ है । सबसे अधिक दुःखी कौन है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा कि अविरत सम्यगदृष्टि दुःखी है, नरक या निगोद आदि के जीव दुःखी अवश्य है, परन्तु वे स्व-दुःख से दुःखी हैं, जबकि सम्यग्दृष्टि पर दुःख से दुःखी हैं । इसे अनुकम्पा कहा जाता है । * विनयविजयजी म. का कथन है कि किसी के प्रति वैर-विरोध नहीं रखना चाहिये, क्योंकि सभी जीवों के साथ अनन्त काल में हमने अनन्त बार माता-पिता आदि का सम्बन्ध बांधा है, उनके साथ शत्रुता कैसे रख सकते हैं ? दूसरे के साथ शत्रुता रखनी अर्थात् अपने साथ ही शत्रुता रखनी । दूसरे के साथ मित्रता रखनी अर्थात् अपने साथ ही मित्रता रखनी, क्योंकि अंततोगत्वा यह अपने ऊपर ही फलित होती है। कदाचित् किसी पर उपकार करें तो भी क्या हो गया ? अनन्त काल में हमने कितनों का ऋण लिया है ? कुछ करेंगे तो ही हम अमुक अंशो में ऋण मुक्त बनेंगे न ? * निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहः । तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं, निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥ 'ज्ञानसार' के इस श्लोक पर अपने गुजराती टबा में पू. उपाध्यायजी यशोविजयजी ने उमास्वातिजी के कथन का उल्लेख किया है कि "एक सामायिक पद के श्रवण से अनन्त जीव मोक्ष में गये हैं।" सब करके हमें सामायिक के फल स्वरूप समता प्राप्त करनी है । केवल मोक्ष का जाप करने से मोक्ष नहीं मिलता । मोक्ष के लिए मोक्ष की साधना रूप सामायिक का आश्रय लेना पड़ेगा । सामायिक से समता मिलेगी। समता आपको यहीं मुक्ति का आस्वादन करायेगी। एक हाथ में सुषमा का सिर और दूसरे हाथ में रक्तपान करती तलवार लेकर दौड़ने वाला चिलातीपुत्र भयंकर दुर्ध्यान में चढ़ा था, (कहे कलापूर्णसूरि - २00omwwwmooooooo® ३४५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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