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________________ अब तक क्रोध, मान आदि हमारे स्वभाव रूप बन गये थे । अब क्षमा-मार्दव आदि स्वभाव बनना चाहिये । साधु-जीवन में यही करना है। क्रोध आदि का सामना करने के लिए ही भगवान ने हमें दस वस्तुएं दी हैं; तो ही हमें समाधि मिलेगी । ___ इस ग्रन्थ में समाधि पर ही बल दिया गया है । मृत्यु में समाधि कब रहेगी ? जब जीवन में शान्ति होगी तब । शान्ति कब होगी ? जब दस प्रकार का यति धर्म स्वभावभूत बनेगा तब । 'प्रगट्यो पूरण राग...' स्तवन में कवि कहते हैं । "वासित है जिनगुण मुज दिलकुं जैसे सुरतरु बाग..." प्रभु ! आपके गुणों से मैंने अपना हृदय नन्दन-वन तुल्य बना दिया है । गुणों के गुलाब से वह महक उठा है ।। दस यति धर्म जीवन में आने पर ही ऐसा हो सकता है। * सव्वस्सवि दुच्चितिअ...! प्रभु ! मैंने मन से दुष्ट सोचा हो, वचन से दुष्ट उच्चारण किया हो, काया से दुष्ट आचरण किया हो, उसके बदले मिच्छामि दुक्कडं मांगता हूं । प्रतिक्रमण का यह सार है । अतिक्रमण करनेवाली चेतना को प्रतिक्रमण के द्वारा स्व-घर में प्रतिष्ठित करनी है । * छोटा बच्चा रूपयों की ढेरी को आग लगाता है, ज्वालाओं को देखकर आनंद प्राप्त करता है, परन्तु उसके पिता को क्या होता है ? हम छोटे बच्चे के समान हैं । संयम की नोटों को आग लगा रहे हैं । पिता के स्थान पर रहे ज्ञानियों को यह देखकर क्या होता होगा ? इसकी आप कल्पना कर सकते हैं। यह प्रवृत्ति रोकने के लिए ही हम यहां एकत्रित हुए हैं । कितने ही तो ऐसे हैं, जिन्हों ने कदापि अहमदाबाद छोड़ा ही नहीं दवा आदि के कारण आते ही रहते हैं। ऐसे भी यहां चातुर्मास के लिए आ पहुंचे हैं । इसका अर्थ यही है कि सबको आराधना प्रिय है। (३४२ 800 0 कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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