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बार का चातुर्मास दो समाजों की ओर से है । दोनों समाजों को कैसे गुरु मिले हैं ?
एक छोटी सी घटना बताता हूं
बीस वर्ष पूर्व पू. गुरुदेव तब यात्रा पर गये थे । उस समय हमें कहा "तुम शीघ्र उत्तर जाओ। मैं दस- साढ़े दस बजे आऊंगा, परन्तु आये सायं साढ़े पांच बजे । उपवास का पच्चक्खाण किया ।
ऐसे हैं गुरुदेव ! किन शब्दों में वर्णन करूं ?
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* हम यहां इतनी विशाल संख्या में क्यों हैं ? आप में से अनेक का यह प्रश्न होगा, परन्तु दो चार वर्षों के बाद इस तीर्थ पर बार-बार हम चातुर्मास करते हों तो आप कुछ कहने के अधिकारी हैं, परन्तु बीस-बीस वर्षों के बाद यह चातुर्मास कर रहे हैं । पूज्यश्री ने तो कह दिया है कि अब इस प्रकार का पालीताणा में चातुर्मास अन्तिम है । अत: उत्साह से भाग लें । कुछ महिनों से पूर्व ही यहां 'आराधना भवन' जैसा कुछ भी नहीं था, परन्तु आज आप यह 'आराधना भवन' देख रहे हैं जो व्यवस्थापकों को आभारी हैं ।
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* जिस समाज का पूज्यश्री को उत्तरदायित्व मिला है, उस समाज को पूज्यश्री भगवान का भक्त ही केवल बनाना चाहते हैं ।
आज हम कुमारपाल आदि को याद करते हैं, उस प्रकार २००-४०० वर्षों के पश्चात् पू. कलापूर्णसूरीश्वरजी की निश्रा में आराधना करनेवाले श्रावक स्मरणीय क्यों न हों ? ऐसा आदर्श जीवन बनाना है ।
* यदि नदी बहती बंध हो जाये तो वह सागर में मिल नहीं सकती । नदी को निरन्तर बहना ही चाहिये । साधक को सतत साधना करनी ही चाहिये । निरन्तरता गई तो सिद्धि गई । सातत्यं सिद्धिदायकम् ।
बैंगलोर चातुर्मास के समय एक सज्जन ने तीरुपात्तूर से बैंगलोर का संघ निकाला था, उस प्रकार यहां भी शिहोर से यहां का छोटा संघ निकालने वाले संघपति भी धन्यवाद के पात्र हैं । दोनों परिवारों की ओर से निर्मित 'सिद्धशिला' धर्मशाला के उद्घाटन के प्रसंग
( कहे कलापूर्णसूरि २wwwwww
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