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________________ भीमासर-कच्छ, वि.सं. २०४६ ३०-५-२०००, मंगलवार ज्ये. कृष्णा-१२ : पालीताणा * धर्म नहीं आये तब तक अनादि काल से लिपटे हुए कर्मों का अन्त नहीं आता । कर्म अशुभ मन-वचन-काया से बंधे हुए हैं। उन्हें तोडने के लिए शुभ मन-वचन-काया की आवश्यकता होगी । योग शुभ बनने पर ध्यान शुभ बनता है। ध्यान का मूलाधार योग (मन-वचन-काया) है। जैसी हमारी मन-वचन-काया की प्रवृत्ति शुभ तो शुभ ध्यान होता है । मन-वचन-काया की प्रवृत्ति अशुभ तो अशुभ ध्यान होता है। इसीलिए हमारे योग अशुभ बनें, ऐसी कोई भी प्रवृत्ति करने का शास्त्रकार निषेध करते हैं । हमारे मोक्ष-मार्ग का सम्पूर्ण आधार इन योगों पर हैं । ये योग ही हमारे कमाऊ पुत्र हैं । कमाऊ पुत्र ही नुकसान का धंधा करें तो पिता को कैसा लगेगा ? हम योगों को ही अशुभ में जाने दें तो कैसे लगेगा ? * छ: जीवनिकाय की पीड़ा अपनी ही पीड़ा है, यह समझ में न आये तब तक सच्चे अर्थ में हमारे योग हिंसा से नहीं रुकेंगे, अशुभ कार्यों से नहीं रुकेंगे । (३२६ 00mmmmmmmmmmmmwwws कहे कलापूर्णसूरि - २
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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