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में 'अहं' दिखा है । इसीलिए कहा कि यह तू नहीं है । मकान में आप रहते हैं, परन्तु आप मकान नहीं हैं । कपड़ों में आप रहे हैं, परन्तु आप कपड़े नहीं हैं । शरीर में आप रहे हैं, परन्तु आप शरीर नहीं है । ऐसी अनुभूति प्रति पल होनी चाहिये । तो ही मृत्यु से भय नहीं लगेगा, मृत्यु को जीत सकोगे ।
* धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय या आकाशास्तिकाय का आत्मा के साथ सम्बन्ध बाधक नहीं है, परन्तु उपकारक है । सिद्धों को भी आकाश आदि का सम्बन्ध है, परन्तु पुद्गल का सम्बन्ध विचित्र है। वह साधक भी बनता है, बाधक भी बनता है। इसीलिए पुद्गलो के सम्बन्धों से सचेत होना है ।
* अन्य जीवों के साथ जैसा आप व्यवहार करेंगे, वैसा ही आप पायेंगे । अच्छा व्यवहार करोगे तो आपका ही हित होगा। दूसरे का अच्छा हो या नहीं हो, परन्तु आपका तो अच्छा होगा ही । इसी प्रकार से दूसरे का अच्छा-बुरा करने का प्रयत्न करोगे तो दूसरे का बुरा हो या न हो, परन्तु आपका तो बुरा (अहित) होगा ही । धवल सेठ ने श्रीपाल का वध करने का प्रयत्न किया, श्रीपाल का कुछ नहीं बिगड़ा, परन्तु धवल सेठ को सातवी नरक में जाना पड़ा । इसी प्रकार से दूसरे का भला करने के प्रयत्न में कदाचित् भला न भी हो, तो भी अपना तो भला होगा ही । 'सवि जीव करूं शासन रसी' की भावना वाले तीर्थंकर समस्त जीवों का उद्धार कब कर सके हैं ? फिर भी उनका तो भला हुआ ही है ।
* जगत् के सर्व जीवों के कल्याण-कर्ता भगवान हैं । भगवान यदि नहीं होते तो अपना क्या होता ? भगवान ही जगत् के चिन्तामणि है, कल्पवृक्ष हैं, वैद्य हैं, नाथ हैं, सर्वस्व हैं । हृदय में यह सतत लगना चाहिये ।
* हमारे भीतर विद्यमान चेतना वफादार है । वह जीव रूपी स्वामी को छोड़कर कदापि कहीं नहीं जाती । वफादारी छोड़ती नहीं है । हम गुरु को छोड़ देते है, परन्तु चेतना हमें कभी भी नहीं छोड़ती ।
ज्ञातृत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ग्राहकत्व, रक्षकत्व आदि शक्तियां (२८८ 000 SO GHODE 65 66 कहे कलापूर्णसूरि- २)