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विद्यमान हो तब ही नहीं) सब समयों में पावन कर रहे हैं । यह ध्यान से पढ़ें । भगवान की भगवत्ता कितनी सक्रिय है ? यह समझ में आयेगा । हेमचन्द्रसूरिजी जैसे वैसे ही नहीं लिखते 'नामाऽऽकृतिद्रव्यभावैः ।"
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पवित्र हम बनते हैं यह सत्य है, परन्तु पवित्र बनाता है कौन ? क्या केवल हमारे भाव ? परन्तु ये शुभ भाव भी भगवान ही देते है, यह कभी भी समझ में आया ?
आप भगवान की मुख्यता स्वीकार करें तो ही भगवान में आपको सर्वस्व दिखाई दे और तो ही आप सच्चे अर्थ में समर्पण भाव उत्पन्न कर सकें ।
नाम - स्थापना आदि के द्वारा भूमिका तैयार करनी है । भूमिका तैयार होने के पश्चात् भाव भगवान मिलेंगे । यही मानें कि हमें यहां परीक्षा के लिये भेजा गया है । यहा नाम - स्थापना आदि की कैसी आराधना करते हैं ? इस आराधना के प्रभाव से ही हमें भाव भगवान की प्राप्ति होगी ।
नाम, प्रतिमा आदि भगवान की शाखाऐं हैं, ब्रान्च हैं । भाव भगवान मुख्य कार्यालय है । मुख्य कार्यालय में प्रविष्ट होना हो तो ब्रान्च में अर्जी करनी पड़ती है, यह पता है ?
* नारक वेदना में पीड़ित हैं । देव सुख में मस्त हैं, तिर्यंच वेदना से त्रस्त हैं । अब केवल मनुष्य ही ऐसे हैं जो धर्माराधना कर सकते हैं । यह जीवन हमें मिला, इसमें भी कितने वर्ष व्यतीत हो गये ? अब कितने बाकी हैं ? मैं अपना स्वयं का कहूं तो ७६ वर्ष चले गये । अब कितने रहे ? काल राजा किसी भी समय आक्रमण कर सकता है । इसीलिए नित्य संथारा पोरसी पढ़ानी है । संथारा पोरसी अर्थात् मृत्यु का सत्कार करने की तैयारी । साधु चाहे जब मृत्यु के लिए तैयार होता है । कल नहीं, आज । आज नहीं, अब; परन्तु मृत्यु आ जाये तो साधु डरता नहीं है । यदि डरे तो वह साधु नहीं है ।
* “हे आत्मन् ! तेरा स्वरूप अवर्ण, अगंध, अरस, अरूप, अस्पर्श है ।" आत्मा का ऐसा 'नेगेटिव' वर्णन क्यों किया ? क्योंकि अनादि काल से हमें वर्णों आदि के साथ एकता लगी है । इसी
कहे कलापूर्णसूरि २ Wwwwwwwwwwwwww
कळळ २८७