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क्या इन सबका हम पर कोई भी ऋण नहीं हैं ? वह ऋण चुकाने के लिए हमने क्या किया है ? और भविष्य में क्या करने की इच्छा है ?
यहां (साधु-जीवन में) आने के बाद इन छः काय के जीवों को पूर्णत: अभयदान देना है । जीवों के ऋण से मुक्त होने का यह एक ही मार्ग है ।
आप (पं. वज्रसेनविजयजी, चन्द्रसेनविजयजी आदि) और हम सब एक ही हैं। पू. दादाश्री मणिविजयजी महाराज में सब एकत्रित हो जाते हैं । उस प्रकार जगत् के समस्त जीवों के रूप में हम एक हैं ।
जगत् के जीव अपना परिवार लगे तब ही ऋण के बोझ से मुक्त हो सकते हैं ।
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जीव के एक- दो-तीन अनेक भेद हैं ।
एक
चेतना की अपेक्षा से ।
दो
सिद्ध संसारी की अपेक्षा से ।
तीन
तीन वेदों की अपेक्षा से । चार चार गतियों की अपेक्षा से ।
पांच पांच इन्द्रियों की अपेक्षा से है ।
ये समस्त भेद, प्रभेद यहां तक कि ५६३ भेद भी हम में से सबको याद होंगे, परन्तु भेद जानकर बैठा नहीं रहना है, परन्तु सभी जीवों के साथ अभेद भाव बनाना है । भेद-अभेद सीखने के लिए हैं ।
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* प्रश्न
सभा में धनाढ्यों को आगे बिठाये जाते हैं, उस प्रकार नवकार में अरिहंत धनाढ्य हैं, उन्हें पहले बिठाया गया, सिद्ध आठों कर्मों से मुक्त होते हुए भी दूसरे क्रम पर बिठाया । क्या यह पक्षपात नहीं है ?
उत्तर
पक्षपात नहीं है, परन्तु अरिहंतों में परोपकार की मुख्यता है । अत: सिद्ध इससे अप्रसन्न नहीं होते । (यद्यपि उनके अप्रसन्नता का प्रश्न नहीं है, परन्तु यह तो अपनी भाषा की बात है 1) प्रत्युत प्रसन्न ही होंगे, क्योंकि संसार में से निकालकर जीवों को सिद्धगति में भेजने का कार्य अरिहंत ही निरन्तर करते ही रहे हैं ।
कळ २८३
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कहे कलापूर्णसूरि २
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