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________________ गिने ।) उनकी थोड़ी प्रसादी ग्रहण करें । आप में से अनेक व्यक्तियों ने पू.पं. महाराज को देखे होंगे, उनके प्रवचन सुने होंगे । मुझे उनके साथ तीन चातुर्मास करने का लाभ मिला । शेषकाल में भी लाभ मिला । जिनशासन के ज्ञाता ही नहीं, परन्तु इन अनुभवी महापुरुष की छाया प्राप्त करने के लिए अन्य सब गौण किया । उनके पास रहने से अनेक लाभ मिले । वर्षों तक बड़े बड़े ग्रन्थ पढ़ने से जो मिले, वह उनसे सहज ही मिल जाता था । इतनी साधना के बीच भी आश्रितों के योग-क्षेम की चिन्ता, संघ के कल्याण की चिन्ता, जिज्ञासुओं को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष मार्गदर्शन, अत्यधिक प्रमाण में वांचन, वांचन के पश्चात् नोट लेखन, सतत नवकार की अनुप्रेक्षा आदि उनकी आकर्षक विशेषताएं थी। एक नोटबुक मुझे भी दी थी। मैंने अभी तक उसे सुरक्षित रखी है, जिसमें क्रोध-निवारण करने की कला बताई गई है । क्या आपको वह चाहिए ? चलो, हम उनके चिन्तन का अवगाहन करें । - क्रोध का आवेश आये तब क्या करना चाहिये ? क्रोध करके कई बार हम आनन्द का अनुभव करते हैं । क्रोध किया अतः कार्य हुआ - इस प्रकार हम अनेक बार मानते यहीं मिथ्यात्व है। भगवान ने जिसका निवारण करने का कहा, क्या उसे ही हम प्रोत्साहन देंगे ? क्रोध का आवेश आने पर भगवान का नाम लें । नाम लेते ही भगवान आयेंगे । भगवान आते हैं वहां क्रोध का शैतान ठहर ही नहीं सकता ।। क्रोध किससे उत्पन्न होता है ? वह देखो । हमारी कामना पूर्ण नहीं होने से क्रोध आता है । हमें दो कमरों की आवश्यकता थी, एक कमरा ही मिला । समाचार दिये फिर भी समय पर 'बोक्स' आया नहीं । इच्छित गोचरी नहीं मिली, समय पर नहीं मिली । शिष्य ने आज्ञा का (२७८ 00000000000000000000s कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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