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करके बैठना नहीं है ।
इस मार्ग पर जाते हुए कषायों, विषयों, परिषहों आदि अनेक को जीतते हुए जाना है ।
जहां विषय-कषाय होते हैं वहां एकाग्रता नहीं होती । मन चंचल रहता है । चंचल मन में साधना नहीं जमती ।
चंचलता का मूल आसक्ति है। किसी वस्तु या व्यक्ति पर आसक्ति होगी या कहीं भी द्वेष होगा तो मन में खलबली मचेगी। आप आत्म-संप्रेक्षण करेंगे तो यह स्पष्ट दिखाई देगा । चंचलता का मूल प्रिय-अप्रिय में रहा हुआ है । प्रियता एवं अप्रियता जितनी कम होगी, मन की चंचलता भी उतनी कम होगी ।
यह प्रिय हैं, यह प्रिय नहीं है । यह ठीक है, यह ठीक नहीं है । यह चलता है, यह नहीं चलता ।
ये समस्त राग-द्वेष के तूफान है, यह आत्म-संप्रेक्षण से समझ में आयेगा । राग-द्वेष घटते हैं तब गुण बढते हैं ।
गुण बढ़ने पर प्रसन्नता बढ़ेगी । प्रसन्नता का सम्बन्ध गुणों के साथ है। अप्रसन्नता का सम्बन्ध दोषों के साथ है ।
कषाय आदि दोष हमारे भीतर विद्यमान ही हैं । कषाय आदि दोषों पर हम अब विजयी बन सकते हैं, परन्तु उनका क्षय नहीं कर सकते । इसीलिए ये दोष ढकी हुई अग्नितुल्य हैं । उसके भरोसे रहने जैसा नहीं है।
दोषों का क्षय नहीं हुआ । क्षय हो तो क्षायिक गुण प्राप्त होते हैं, परन्तु हमारे गुण तो क्षायोपशमिक भाव के हैं । इसीलिए उनके भरोसे न रहें । साधना मैं अविरत सावधानी की आवश्यकता
* आज पू.पं.श्री भद्रंकरविजयजी महाराज की स्वर्गारोहण तिथि है। पूरे बीस वर्ष हो चुके हैं। वि. संवत् २०३६ में वैशाख शुक्ला-१४ को स्वर्गवास हुआ था ।
बारह नवकार गिनो । उनके खास बारह नवकार थे । बारह नवकार का प्रचार उन्हों ने ही किया था । (सबने बारह नवकार कहे कलापूर्णसूरि - २Womwwwmoms sooooooo २७७)