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________________ उसके लिए तो सम्पूर्ण सज्ज होकर एक दम सीधा खड़ा रहना है । शास्त्रकारों ने कैसे जीना यह बताया हैं, उस प्रकार मरना कैसे यह भी सिखाया है। जिसका जीवन अच्छा हो उसकी मृत्यु भी अच्छी ही होगी। फिर भी भरोसे नहीं रहना है। सदा सावधान रहनेवाला ही मृत्यु पर विजयी हो सकता है । निदानरहित, शल्यरहित आत्मा ही मृत्यु को जीत सकता है। यदि आप मांगो कि मुझे स्वर्ग मिले या राज्य मिले, तो आप मृत्यु के समय हार जाओगे । यहि हृदय में शल्य होगा तो हार जाओगे । __यदि किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान या काल में आसक्ति होगी तो आप हार जाओगे । तुच्छ आसक्ति भी आपको डुबो देगी। प्रभु के अतिरिक्त कुछ भी याद रखने योग्य नहीं है, देखने योग्य नहीं है, साथ ले जाने योग्य कुछ नहीं है। प्रभु का सम्बन्ध ऐसा प्रगाढ बनाओ कि भवान्तर में भी वह साथ चले । प्रभु ही माता, पिता, नेता, देव, गुरु आदि हैं । इस प्रकार हृदय से स्वीकार करो। आप समर्पित होओगे तो प्रभु अवश्य रक्षा करेगा । माता अपने बालक को नहीं भूलती तो भगवान भक्त को कैसे भूल सकेंगे ? यह शरणागति का कवच पहन कर आप मृत्यु की संग्राम भूमि में कूद पडें । विजय अवश्य आपकी है। "पीनोऽहं पाप पंकेन, हीनोऽहं गुणसम्पदा । दीनोऽहं तावकीनोऽहं, मीनोऽहं त्वद्गुणाम्बुधौ ॥" प्रभु ! मैं भले ही पाप-पंक से पीन हूं, गुणों से हीन हूं और दीन हूं तो भी तेरा हूं । तेरे गुण-सागर मैं मीन हूं । इस प्रकार प्रभु को निवेदन करके शरणागति को सुदृढ बनाओ । राधावेध की साधना करने के लिए वर्षों तक साधना करनी पड़ेगी, निरन्तर अभ्यास करते रहकर सावधान रहना पड़ता है। अर्जुन ही केवल राधावेध कर सका क्योंकि उसका पूर्व अभ्यास था । यहां भी मृत्यु के समय समता का पूर्व अभ्यास हो तो ही समाधि रह सकती है। [२६८00Booooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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