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समिति-गुप्ति के पालन पूर्वक राग-द्वेष का त्याग करो तो ही चारित्र शुद्ध बनता है । मलिनता नष्ट करके आनन्द (सुख) प्रकट करने की कला प्रभु सिखाते हैं ।
* 'योगशास्त्र' के चौथे प्रकाश में आचारों का पालन कैसे करना और पांच महाव्रतो - अणुव्रतों आदि के सम्बन्ध में विस्तार से बताया है । आचार-शुद्धि, विचार-शुद्धि की नींव है । आचारशुद्धि होने पर ही आत्म-शुद्धि होती है। आत्म-शुद्धि होने पर प्रभुदर्शन की उत्कण्ठा जगती है । ज्यों ज्यों उत्कण्ठा तीव्र बनती है, त्यों त्यों अधिकाधिक आत्म-शुद्धि होती जाती है । श्री आनंदघनजी म.सा. ने कहा है -
“अभिनंदन जिन दरिसण तलसिये ।" । जिसे प्यास लगी हो वह व्यक्ति पानी की खोज हेतु क्याक्या नहीं करता ? विहार में पानी की प्यास कैसी लगती है ? उस तरह क्या भगवान के दर्शन की प्यास लगी है ? भगवान के दर्शन की प्यास ही सम्यग्दर्शन है ।
संसार के सुख विष प्रतीत हों, यही सम्यग्दर्शन है ।
विषय विष से भी ज्यादा भयंकर प्रतीत हों तो ही हम सच्चे अर्थ में सम्यक्त्वी कहलायेंगे । विषय-विरक्ति ही भव-निर्वेद है, परन्तु यह निर्वेद कैसे होगा ? भगवान की कृपा से होगा ।
"होउ ममं तुह प्पभावओ भयवं भव-निव्वेओ ।"
चारित्र को यदि विशुद्ध बनाना हो तो प्रभु को सामने रखें । भगवान का अनादर नहीं ही करें । इतना निश्चय कर ही डालो । भगवान का अनादर न हो वैसा जीवन व्यतीत करना ही संयम का सार है । भगवान की आज्ञा का अनादर अर्थात् भगवान का अनादर ।
भगवान का नाम, भगवान के गुण सुनने पर हर्ष हो यही आदर का चिन्ह है ।
चतुर्विध संघ के किसी भी सदस्यका अनादर भगवान का अनादर है और भगवान का अनादर समस्त जीव राशि का अनादर
जैसी रक्षा आप अपनी करते हैं वैसी समस्त जीवराशि की (कहे कलापूर्णसूरि - २ 600000000000000000000000 २३३)