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________________ उनके द्वारा प्राप्त भगवान को समर्पित करो । यह कृतज्ञता है । * अत्यन्त आलस, अत्याधिक भूख, अत्याधिक खाने की इच्छा, अत्यन्त ही पीने की इच्छा होती हो तो समझें कि मेरी आत्मा तिर्यंच गति में से आई है । अत्यन्त ही आवेश, लडाई-झगडा करने में विलम्ब नहीं, गालियों देने में विचार नहीं, किसी अपकृत्य को करने में शर्म नहीं, बात बात में विरोध में आपत्ति नहीं, अधमाई की पराकाष्ठा हो और गुरु के सामने तो विशेषतया बोलना आदि लक्षण नरक में से आने के हैं । * आप दूसरों के प्रति डाकिनी, सांपनी, शंखिणी या ऐसे कोई अपशब्दों का प्रयोग करोगे तो याद रखना, आपको ही ऐसा बनना पडेगा । आगामी भव में आपको जीभ नहीं मिलेगी । इस जीभ के द्वारा अच्छे शब्द, भगवान के गुण-गान गाकर अपार पुन्य उपार्जन किया जा सकता है । उसके स्थान पर यदि आप जीभ का दुरुपयोग करो तो आप इतनी मूर्खता कर रहे हैं कि चन्दन के लकडे से कोयले बना रहे हैं और उन कोयलों के द्वारा स्वयं को काला कर रहें हैं । * वस्त्रों आदि में रंग-बिरंगी डोरे डालने आदि में समय क्यों बिगाडे ? आप अन्य समुदाय के हों तो भी मेरी आपको सलाह है कि इसमें आप समय न बिगाड़े। इससे अपना साधुत्व सुशोभित नहीं होता । * जीभ के द्वारा कठोर शब्दों का कदापि प्रयोग न करें। आपके समान कठोर शब्दों का प्रयोग गुरु तो कर सकते नहीं । ऐसा करें तो समूह एकत्रित हो जायेगा । गुरु को तो लोक-लाज होती है न ? इसलिए उस शिष्य को दुगुना बल मिलता है - 'गुरु को नियंत्रण में रखने का बढिया उपाय मिल गया । यह भयंकर स्तर का गुरु-द्रोह है जो नरक में ले जाता है । जिसे नरक में जाना हो वही ऐसे काले कार्य करता है। * क्या यह जीवन इस प्रकार खोने के लिए है ? आप जीवन का मूल्यवान समय किस प्रकार व्यतीत करते हैं ? समझ लो कि जीवन का कोई भरोसा नहीं है। अधिक से अधिक आप (१९६ 60ommmmmmo000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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