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दीक्षित तीर्थंकर साधु ही कहलाते हैं ।
अरिहंत भी प्रथम साधु बनते है, उसके बाद ही वे तीर्थंकर बन सकते हैं । ऐसा साधु-जीवन पाकर क्या हम प्रमाद में पड़े रहेंगे?
मनुष्य-भव मिलना, उसमें भी बोधि मिलना, उसमें भी साधुजीवन मिलना कितना दुर्लभ है ? यह निरन्तर सोंचे ।।
मानव-जीवन प्राप्त होने के पश्चात् बोधि मिलना कोई सरल नहीं है । उसके लिए गणधरों को भी भगवान से याचना करनी पड़ती है -
'आरुग्ग-बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु ।' प्रश्न - गणधर तो सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, फिर बोधि के लिए याचना क्यों ?
उत्तर - इसलिए कि प्राप्त बोधि अधिक निर्मल बने । प्राप्त की हुई बोधि को खोकर निगोद में जाने वाले भी अनन्त जीव
प्राप्त की हुई बोधि, सम्यक्त्व जा भी सकता है । क्षायिक भाव न आये तब तक विश्वास नहीं रखा जा सकता । हमारे इस समय के गुण क्षायोपशमिक भाव के हैं । कांच (शीशे) के बर्तन की तरह उन्हें संभालना आवश्यक है।
* दूरस्थित दृश्यों को 'दूरदर्शन' के द्वारा आप यहां देख सकते हैं, उस प्रकार दूरस्थित भगवान को नाम-मूर्ति आदि के द्वारा आप यहां देख सकते हैं । केवल आपके पास श्रद्धा की आंख चाहिये ।
* "विनय न छोड़ें, गुरु की अवहेलना न करें, कृतघ्न नहीं बनें ।" इतना अवश्य ध्यान में रखें । जिस गुरु ने आपको यह रजोहरण (ओघा) दिया है, उन गुरु के अनन्त उपकार सदा दृष्टि के समक्ष रखें ।
* पुन्य के स्वामी भगवान हैं, हम नहीं । जब भी हमने पुन्य बांधा होगा तब किस प्रकार बांधा होगा? अरिहंतो द्वारा कथित किसी सुकृत का जाने-अजाने आचरण करके ही पुन्य बांधा होगा न? उस पुन्य पर हमारा स्वामित्व नहीं किया जाता । पुन्य भगवान का है तो
(कहे कलापूर्णसूरि - २Romooommonsoooooooo १९५)