________________
इस भव में भी सुखी होना हो तो भी कषायों को दूर करना ही अनिवार्य है ।
* ऐसा अतिशय दुर्लभ चारित्र मिलने के पश्चात् भी यदि उसकी विराधना हो तो आपकी दशा उस व्यक्ति जैसी होगी, जिसका जहाज टूट गया है और वह समुद्र में डूब रहा है । वह व्यक्ति अन्य किसी की भूल से नहीं, अपनी स्वयं की ही भूल से डूब रहा है। उसने स्वयं ही जहाज में छेद किये थे ।।
हम चारित्र रूपी जहाज में तो छेद नहीं कर रहे हैं न ? अतिचार लगाना अर्थात् चारित्ररूपी जहाज में छेद करना । (गाथा १०५)
अब निश्चय करें - मुझे छेद नहीं करना, निरतिचार चारित्र का पालन करना है। निरतिचार चारित्र का पालक चारित्ररूपी जहाज में बैठ कर आनन्दपूर्वक संसार-सागर के उस किनारे पर पहुंच जाता है ।
एक सज्जन १५-१६ व्यक्तियों के साथ परदेश में शौक के लिए नाव में बैठा और सागर में भयंकर तूफान आ गया । नाव डूबने की तैयारी में थी । मन में विचार आया - 'व्यर्थ मैंने ऐसा शौक किया ।'
परन्तु अब क्या हो ? नवकार का स्मरण प्रारम्भ किया । नवकार के प्रभाव से तत्क्षण दूसरी नाव बचाव के लिए आ पहुंची
और वे बच गये । सामखियाली के नरसी जसा सावला ने हमें यह खुदका अनुभव सुनाया था ।
खैर, हमारी नाव तो सुरक्षित है न ?
जब जीवन-नैया डगमगाने लगे तब प्रभु का स्मरण करना । प्रभु ही जीवन-नैया के खेवनहार बन सकते हैं ।
पू. उपा. यशोविजयजी कहते हैं -
"तप-जप मोह महातोफाने, नाव न चाले माने रे; पण मुझ नवि भय हाथोहाथे, तारे ते छ साथे रे..."
* कभी जब अपमान का प्रसंग आ पडे, क्रोध भड़क उठने की तैयारी में हो तब सोचना - "जिसका अपमान हो रहा है, वह मैं नहीं हूं। मैं (आत्मा) हूं, अनामी हूं। मेरे नाम को (१९२ 000wwwwwwwwwws कहे कलापूर्णसूरि - २)