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________________ यदि आवश्यकता नहीं होती तो संथारा पोरसी में अठारहों पापों को छोड़ने की बात क्यों लिखी ? गृहस्थों को प्राकृत भाषा समझ में नहीं आती, अत: 'सात लाख' है । हमारे संथारा पोरसी में यह बात आ जाती है, अतः हम 'सात लाख' नहीं बोलते । आप यह न मानें कि उसकी आवश्यकता नहीं है या उससे परे हो गये हैं । संथारा पोरसी में तो विशेषतः लिखा है 'ये अठारह पापस्थानक मोक्ष मार्ग के संसर्ग में विघ्नभूत हैं ।" "मुक्खमग्गसंसग्ग-विग्ध-भूआई ||" और 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि ।' यह तो बोलते ही हैं । सर्व सावद्य योग के त्याग में कौन सा पाप शेष रहा ? — * यदि चारित्र में आनेवाली शिथिलता मिटानी हो तो धृति बढ़ाओ । धृति बढ़ेगी तो शिथिलता मिटेगी । यह होगा तो मोक्ष प्राप्त होगा । बोलो, क्या मोक्ष चाहिये ? साध्वी सभा 'हां जी ।' अभी तो बड़ा कमरा चाहिये, मोक्ष की कहां आवश्यकता है ? जिस वस्तु की तड़पन न हो वह कदापि प्राप्त नहीं होगी । मोक्ष नहीं मिला, क्योंकि तड़पन नहीं थी । मोक्ष प्राप्त नहीं होता क्योंकि तड़पन नहीं है । तड़पन हो तो मोक्ष के उपायों में (रत्नत्रयी) प्रवृत्ति करने से कौन रोकता है । जोरदार भूख लगेगी तो आदमी भोजन प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करेगा ही । कषाय आदि दोष कुत्तों के समान हैं । कुत्ते बिना बुलाये आ जाते हैं । लकड़ी से निकाल दो तो भी पुनः आ जाते हैं । सादड़ी में तो एक महाराज के पात्र में से कुत्ता लड्डू उठा कर ले गया था । १९० कुत्ते को फिर भी हम निकाल देते हैं, परन्तु कषायों को तो हम निमंत्रण देकर बुलाते हैं । उनका मधुर-मधुर आतिथ्य करते हैं । फिर अतिथि ( कषाय) क्यों जायेंगे ? चारित्र की बातें करते-करते बीच में कषाय कैसे आ गये ? कहे कलापूर्णसूरि
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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