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धर्मों आदि का पालन करना, पांच महाव्रत, अष्ट प्रवचन माताओं का पालन करना । इसके फलस्वरूप आत्म-रमणता रूप समाधि मिलेगी ।
समाधि तक जाने के लिए उत्कट आत्म-शक्ति आवश्यक है । हमारी आत्म-शक्ति दबी हुई है । चारित्र का पालन करने से आत्म-शक्ति प्रकट होती है ।
समाधि में लीन योगी कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरिजी की तरह बोल उठता है - 'मोक्षोऽस्तु माऽस्तु ।' मोक्ष हो या न हो, उपा. यशोविजयजी की तरह बोल उठते हैं -
___'मुक्तिथी अधिक तुझ भक्ति मुझ मन वसी ।' * कर्म-साहित्य आदि का अध्ययन इसीलिए ही करना
कर्म कैसे बंधते हैं ? उनसे कैसे छूटा जा सकता है ? वह सब जाने तो उसे दूर करने के लिए प्रयत्नशील बना जाये न ?
केवल कर्म-प्रकृतियों को गिनने के लिए कर्म-ग्रन्थों का अध्ययन नहीं कराया, परन्तु कर्मों का आक्रमण रोकने के लिए (संवर करने के लिए) एवं कर्मो पर आक्रमण करके उनकी निर्जरा करने के लिए कर्म-ग्रन्थों का अध्ययन कराया है।
निर्जरा तप से होती है । तप के बारह भेदों में सर्वाधिक शक्तिशाली स्वाध्याय बताया गया है। हमें कायोत्सर्ग-ध्यान शक्तिशाली प्रतीत होता है, परन्तु उसे भी शक्तिशाली बनाने वाला स्वाध्याय ही है।
शेष विनय, वेयावच्च उसके साधन हैं । आप इस भ्रम में न रहें कि बडों की विनय-वेयावच्च आदि स्वाध्याय के बिना आ जायेंगे ।
__ आप इस भ्रम में भी न रहें की बाह्य तप न हो तो विनय, वेयावच्च आदि अभ्यंतर तप आ जायेंगे । एकासणे में जितना समय मिलता है उतना समय क्या नौकारसी में मिलता है ? आप ही सोचें । खाने-पीने में, लाने में और लूणा साफ करने में ही दिन व्यतीत हो जायेगा । फिर अध्ययन कब करेंगे ? बाह्य तप के बिना अभ्यंतर तप आयेगा ही नहीं । यह अनुभव की वस्तु है ।
(कहे कलापूर्णसूरि - २0amasoooooooooooooo १८१)