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________________ भुज में एक सज्जन आये थे । मेरे पास 'ज्ञानसार' की पुस्तक देखकर वे बोले 'इस 'ज्ञानसार' का मैंने पहले अच्छी तरह अभ्यास किया है । अब आवश्यक नहीं प्रतीत होता । उससे आगे की भूमिका प्राप्त हो गई है । वे सज्जन विपश्यना की शिबिर में गये थे । यह आत्मानुभूति का भ्रम कहलाता है । सच्ची अनुभूति ऐसी नहीं होती । * पूज्य आनंदधनजी को प्रभु-दर्शन की लगन लगी थी । "दरिसण... दरिसण रटतो जो फिरुं तो रणरोझ समान... ' इस पंक्ति में उनकी प्रभु - विरह की वेदना दृष्टिगोचर हो रही 11 1 — प्रभु के विरह के बिना प्रभु से मिलन कदापि नहीं होता । हमें प्रभु का विरह कभी लगता है क्या ? * संस्कृत - प्राकृत आदि का अभ्यास छूट जाने पर पूर्वाचार्यों के साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध छूट गया । अतः हम साधना से दूर हो गये । खा-पीकर मजे करना क्या साधु-जीवन कहलाता है ? क्या आपको यह उचित प्रतीत होता है ? प्रश्न क्या प्रभु का प्रेम प्रयत्न से प्रकट होता है कि सहज रुप से प्रकट होता है ? - उत्तर दोनों प्रकार से प्रभु का प्रेम प्रकट होता है 'निसर्गादधिगमाद् वा' । सहजरूप से और प्रयत्न से भी प्रकट होता है । सम्यग्दर्शन प्रभु प्रेम ही है । अनुमोदना की एवं आश्वासन की भाषा में कहूं तो आप सब में प्रभु प्रेम प्रकट ही है । यदि प्रकट नहीं हुआ होता तो हम यहां आये ही नहीं होते, आप मुझे सुनते ही नहीं होते; लेकिन अभी तक वह प्रेम पूर्ण नहीं है । प्रभु अर्थात् आखिर तो हमारी ही आत्मा ! प्रभु-प्रेम अर्थात् हमारी ही आत्मा का प्रेम ! - - * प्रभु जितनी हमारी चिन्ता रखते हैं, उतनी हम स्वयं भी अपनी चिन्ता नहीं रखते । आगे बढकर कहूं तो गुरु को जितनी चिन्ता है, उतनी हम स्वयं को अपनी चिन्ता नहीं है । चण्डकौशिक को अपने क्रोध की कहां चिन्ता थी ? चिन्ता तो भगवान महावीर देव को थी । कहे कलापूर्णसूरि २ कळकळ ०१२३
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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