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* जब जिस समय जो संयोग उपस्थित हो, उस समय समता (चित्त की स्वस्थता) बनाये रखना वह उच्च कोटि की कला है, जो तीर्थंकर के जीवन में सिद्ध हुई प्रतीत होती है।
प्रकृति चाहे अन्य सभी अनुकूलता कर दे, परन्तु कर्म तो तब भी क्रूरता से आक्रमण करता है। उसे तनिक भी दया नहीं है । उस समय भी चित्त का सन्तुलन नहीं खोना समता है ।
* खीर खाते-खाते, गुरु-गुण सुनते सुनते, गुरु को देखते-देखते तापसों को केवलज्ञान प्राप्त हो गया । केवलज्ञान सस्ता है कि महंगा है ? ये ही भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए कितनी कठिनाइयां सहन करनी पडी ? मां सीरा बनाने का श्रम करती है । बालक को तो केवल खाना ही है । भगवान जगत् की माता है । वे परिश्रम करके जो प्राप्त करती हैं वह शिष्यों को पलभर में प्राप्त हो जाता है ।
आप अपने आप आगमों में से कुछ प्राप्त नहीं कर सकते, गुरु के द्वारा अल्प समय में आप प्राप्त कर सकेंगे । सैंकडों पुस्तके पढ़ने पर जो वस्तु प्राप्त न हो, वह गुरु दो मिनिट में बता देंगे । छोटे बच्चे को सीरा खाने में आनन्द नहीं आता, खेलने में आनन्द आता है । खेल में से उठाकर स्वयं माता सीरा खिलाती है । उसी प्रकार से गुरु भी शिष्यों को तत्त्व परोसते हैं ।
* हीन काल है । हीन काल के कारण जीवों का पुन्य भी हीन है । पुन्यहीन जीवों को सद्गुरु का समागम भी अत्यन्त ही दुर्लभ होता है । वे बिचारे सद्गुरु के नाम पर कभी दादा भगवान को, रजनीश को या अन्य किसी को पकड़ बैठते हैं । वे कुगुरु को सुगुरु मान बैठते हैं ।
* नवपद में हमारी आत्मा है । आत्मा में नवपद हैं । यह बात सुनी है, परन्तु उस पर गहराई से कदापि विचार नहीं किया - मेरी आत्मा में नवपद हैं तो कहां हैं ?
आत्मा में ही अरिहंत, सिद्ध आदि विद्यमान है। उन्हें केवल प्रकट करने की आवश्यकता है ।
* संसार में किसी को न हो, वैसी वस्तु 'अतिशय' है । भगवान ऐसे अतिशयों से युक्त हैं । ऐसे भगवान में ऐसी शक्ति कहे कलापूर्णसूरि - २ 60masomoooooooo000 ११३)