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यद्यपि पूज्यश्री का प्रत्येक वचन साधनापूत होता है, परन्तु पूज्यश्री अपनी अनुभूति को शास्त्रों के उदाहरणों के साथ ही जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं । अतः आपको कदम-कदम पर शास्त्रसम्मत आधार दृष्टिगोचर होंगे। शास्त्र - विरुद्ध एक भी शब्द नहीं बोला जाये, उसकी सावधानी आपको देखने को मिलेगी । वस्तुतः इतनी सावधानी की भी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि ऐसे महापुरुषों की मति शास्त्रों में ऐसी रमी हुई होती है कि उनके मुंह से स्वाभाविक तौर पर ही शास्त्र - विरुद्ध वचन निकलते ही नहीं ।
इस प्रकार मौलिक चिन्तन की अपेक्षा रखनेवालों को अप्रसन्न अथवा निराश होना स्वाभाविक है ।
तथाकथित मौलिक चिन्तन सचमुच 'मौलिक' होता है ? कहीं पर पढे हुए, कहीं सुने हुए विचारों को तनिक नये सन्दर्भों में कहने मात्र से क्या मौलिकता आ गई ? एक स्थान पर पक्षी का पंख देखा, दूसरे स्थान पर घड़ा देखा । अब आप पंखवाले घड़े की बात कह कर कहने लगे- 'यह मेरा मौलिक चिन्तन है !'
सचमुच, इस जगत् में कुछ भी मौलिक है क्या ? पूज्यश्री के शब्दों में कहें तो "यहां मौलिक कुछ भी नहीं है । मैं मौलिक विचार प्रस्तुत कर रहा हूं, यह विचार भी अभिमान-जनित है । बीज बुद्धि के निधान गणधर भगवंत भी 'त्तिबेमि' कह कर "भगवान द्वारा कथित मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं । यहां मेरा कुछ भी नहीं है ।" इस प्रकार कह रहे हो वहां हम जैसों का मौलिकता का दावा कितना क्षुल्लक गिना जायेगा ?
विश्व में अक्षर तो हैं ही, अक्षर मिलकर शब्द, शब्द मिलकर वाक्य, वाक्य मिलकर फकरे, फकरे मिलकर प्रकरण और प्रकरण मिलकर ग्रन्थ तैयार हुआ । इस में मेरा क्या ? ऐसा सोचनेवाले रचयिता को अभिमान कैसे आ सकता है ?
यह ग्रन्थ अर्थात् हमारी डायरी । पूज्यश्री बोलते गये, उस समय जो लिखा गया वही केवल सामान्य परिवर्तन परिवर्द्धन के साथ यहां प्रस्तुत किया गया है । लिखते समय तनिक भाषाकीय रंग दिया गया है । अतः, इसमें भाषा पूर्णतः कदाचित् पूज्यश्री की न भी हो, परन्तु भाव तो पूज्यश्री के ही हैं ।
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