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सम्पादक की कलम से..
(गुजराती प्रथमावृत्ति में से) जिन के अन्तरघट में अध्यात्म का भानु उदय हो चुका हो वैसे योगी की जीवन-क्रिया कैसी होगी? वाणी कैसी होगी? विचार धारा कैसी होगी ? उनके अस्तित्व का प्रभाव कैसा होगा ? यह जानने के लिए अध्यात्मयोगीश्री का जीवन आदर्श स्वरूप है ।
_पूज्यश्री की अत्यन्त अमूच्छित दशा में अत्यन्त धैर्य एवं अनुद्विग्नता से होती प्रत्येक क्रिया सूचित करती है कि भीतर कुछ घटित हुआ है ।
चेहरे पर आच्छादित सदा की प्रसन्नता अन्तर में छलकते आत्मिक आनन्द की प्रतिक है ।
पूज्यश्री के मुखारविन्द से प्रस्फुटित होती सहज वाणी में कोई आवेश नहीं होता, शीघ्रता नहीं होती, चीख-पुकार नहीं होती या हाथों के अभिनय नहीं होते ।
भुजास्फालनहस्तास्य - विकाराभिनयाः परे । अध्यात्मसारविज्ञास्तु वदन्त्यविकृतेक्षणाः ॥
- अध्यात्मसार ऐसी दिव्य वाणी आध्यात्मिकता की संकेत है
हम उन्तीस वर्षों से पूज्यश्री के सम्पर्क में हैं, पर हमने कदापि यह नहीं देखा कि उन्होंने किसी को आकर्षित करने के लिए, किसी को प्रभावित करने के लिए या स्वयं की विद्धत्ता प्रदर्शित करने के लिए एक भी वाक्य का प्रयोग किया हो । पूज्यश्री सहज भाव से देशना देते हों और सभाजन स्वयं प्रभावित हो जाते हों तो अलग बात है, परन्तु पूज्यश्री की ओर से उसके लिए कदापि कोई प्रयत्न नहीं होता ।
। मौलिक चिन्तन या मौलिक विचार जानने के अभिलाषी कदाचित् इस ग्रन्थ को पढकर निराश हो सकते हैं, क्योंकि पूज्यश्री तो बार बार बलपूर्वक कहते रहते हैं कि यहां मेरा कुछ भी नहीं है । मैं तो केवल माध्यम हूं, बुलवाने वाले तो भगवान हैं । पा मैं यहां कुछ भी नहीं कहता, केवल भगवान की वाणी आप के पास पहुंचाता हूं ।