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११ दीक्षा, भुज, वि.सं. २०२८, माघ शु. १४
१-४-२०००, शनिवार चैत्र कृष्णा-१२ : तगड़ी-परबड़ी
गाथा ६८ - ज्ञानगुण ।
* स्वाध्याय साधु का जीवन है, अमृत-भोजन है । जिस प्रकार आहार के बिना जीवन नहीं टिकता, उस प्रकार स्वाध्याय के बिना आत्मा के भाव-प्राण नहीं टिकते । स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप नहीं है । कर्म-निर्जरा के उपायों में यह श्रेष्ठ उपाय है।
जिनागम के प्रति जिसमें बहुमान उत्पन्न हो गया, वह प्रभुभक्त बन गया समझें, क्योंकि भगवान और भगवान के आगम भिन्न नहीं हैं । ऐसा भक्त, समवसरण में बैठा हुआ श्रोता जितना आनन्द प्राप्त कर सकै, उतना ही आनन्द स्वाध्याय करने में, आगम का पठन करने में प्राप्त कर सके ।
* ज्ञान का महत्त्व पहले इसलिए नहीं बताया कि शिष्य सर्व प्रथम ज्ञान के अध्ययन में ही लग जायें, परन्तु विधि के बिना ज्ञान प्राप्त किया जाये तो खतरा है । इसी लिए विनय का स्थान प्रथम बताया गया है ।
विनय अर्थात् सम्यग-दर्शन । इससे रहित ज्ञान अज्ञान ही कहलाता है। जिसके द्वारा आत्मा का अहित होता हो उसे ज्ञान (८२0mmonommonsooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)