________________
'काम लगेगा' - इस आशा से शिष्य आदि भी नहीं किये जाते ।
'मैं कार्य करूंगा तो मेरी पोज़िशन का क्या ?' यह विचार मोह के घर का है । जो पर की आशा में रहे वे सर्वथा रह गये ।
एक ही हाथ में रही हुई पांचों अंगुलियां समान नहीं हैं । लम्बी - छोटी हैं । तो फिर हमारे आसपास के समस्त जीव समान कैसे हो सकते है ? 'जगत् जीव है कर्माधीना, अचरिज कछुअ न लीना' । अतः कोई काम न करे तो हमें भी नहीं करना, इस प्रकार की भावना न अपनायें ।
८. 'पाशाः इव सङ्गमाः ज्ञेयाः' - संयोगों को पाश तुल्य समझें ।
संयोग उत्तम प्रतीत होते हैं, परन्तु ये ही फन्दे हैं । मछली को गल में मांस प्रतीत होता है, परन्तु वही उसके गले का फन्दा बनता हैं । जगत के समस्त संयोग बन्धन हैं । बन्धन में कभी आनन्द नहीं होता । बन्धन अर्थात् पराधीनता, पराधीनता में आनन्द कैसा ?
९. 'स्तुत्या स्मयो न कार्यः :' सज्जनों की यह सज्जनता है कि आपके तुच्छ गुणों की भी वे अत्यधिक प्रशंसा करते हैं ।
स्वप्रशंसा सुनते समय आप मन्द मन्द मुस्करायें नहीं । स्कंध ऊंचे न करें । अपना कार्य कराने के लिए कभी कोई आदमी आपकी मिथ्या प्रशंसा भी कर सकता है । चोंच में पकड़ी हुई 'पुड़ी' प्राप्त करने के लिए सियार ने कौए की प्रशंसा की थी, वह वार्ता आपको याद है न ? __शायद वह शुभ भाव से भी प्रशंसा करे । प्रशंसा करना उसका कर्तव्य है, परन्तु अभिमान करना आपका कर्तव्य नहीं है । परनिंदा करना-सुनना पाप है, उस प्रकार स्वप्रशंसा करना-सुनना भी पाप
पर-निंदा से फिर भी बचा जा सकता है, स्वप्रशंसा से बचना मुश्किल है, यह अनुकूल उपसर्ग है, मीठा झहर है । दुःख फिर भी हजम किया जा सकता है, सुख को हजम करना मुश्किल (कहे कलापूर्णसूरि - १ ****
१
******************************
३९