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है । तो ही शुद्ध सिद्धान्त रस पान करने को मिलेगा ।
'श्रुत अभ्यासी चौमासी वासी लीबडी ठाम, शासनरागी सोभागी श्रावकना बहु धाम;
खरतरगच्छ पाठक श्रीदीपचन्द्र सुपसाय, 'देवचन्द्र' निज हरखे, गायो आतमराय ॥ ४८ ॥
'लींबडी' में श्रावकों के बहुत घर है । आज भी है । वहां मैंने आत्मा के गुण-गान किये हैं - ऐसा कर्ता कहते है ।
आत्मगुण रमण करवा अभ्यासे,
शुद्ध सत्ता रसीने उल्लासे; __ 'देवचन्द्रे' रची अध्यात्म-गीता,
आत्मरमणी मुनि सुप्रतीता ॥ ४९ ॥ अध्यात्म से अपरिचित अन्य जीवों पर भी उपकार हो अतः इस अध्यात्म गीता की रचना की गई है ।
इसमें मुझे क्या रचना करनी है ? आत्मरमणी मुनिको तो यह अच्छी तरह ज्ञात ही है । इस प्रकार अन्त में कविश्री अपना कर्तृत्व भाव हटा देते हैं ।
o आज हमारे गुरुदेव पू. कंचनविजयजी महाराजकी २८वी स्वर्गतिथि है। वे अनशनपूर्वक ग्यारहवे चौविहार उपवास में कालधर्म को प्राप्त हुए थे । वे अत्यन्त ही निःस्पृह थे । संथारिया एवं उत्तरपट्टा के अलावा उनके पास कोई उपधि नहीं थी ।
गृहस्थ जीवन में वे पांच-सात वर्ष पालीताणा में रहे । वे वहां विशेष करके गुरु तय करने के लिए ही रहे थे । वे अनेक आचार्यों के परिचय एवं सम्पर्क में आये । अन्त में उन्होंने पूज्य कनकसूरिजीको गुरु के रूप में स्वीकार किये । हम यहां आये उसमें वे भी कारण हैं ।
उनका उपकार भला कैसे भूल सकते हैं ? उनके चरणों में अनन्त वंदन ।
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