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आत्मसत्ता की रुचि अर्थात् सम्यक्त्व । आत्मसत्ता का बोध अर्थात् सम्यग्ज्ञान । आत्मसत्ता की रमणता अर्थात् सम्यक् चारित्र ।
इस रत्नत्रयी को प्राप्त करनेवाली आत्मा पुष्ट बनती है । अहो भव्यो ! तुमे ओलखो जैन धर्म, जिणे पामिये शुद्ध अध्यात्म मर्म; अल्पकाले टले दुष्ट कर्म,
पामिये सोय आनन्द शर्म ॥ ४५ ॥
हे भव्यो ! मेरी सलाह मानो तो जैन धर्म को पहचानो । आपको शुद्ध अध्यात्म धर्म का मर्म मिलेगा । यदि प्रयत्न करोगे तो अल्पकाल में दुष्ट कर्मों का क्षय हो जायेगा, कल्याण हो जायेगा । ऐसा पूज्य देवचन्द्रजी कहते है ।
मुख्य पदार्थ है : आत्मा । इस एक आत्मा को पहचानते ही अन्य सब अपने आप पहचान में आ जायेंगे ।
मुख्य बात तो मार्ग दर्शन की है। शेष मार्ग तो मार्ग अपने आप बतायेगा । ज्यों ज्यों आगे बढते जायेंगे, त्यों त्यों आगे आगे का मार्ग स्पष्ट होता जायेगा । पूर्व अनुभव ही बाद में होनेवाले अनुभव की झलक बतायेगा ।
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नय निक्षेप प्रमाणे जाणे जीवाजीव, स्व- पर विवेचन करतां थाये लाभ सदैव; निश्चय ने व्यवहारे विचरे जे मुनिराज; भवसागर तारणा निर्भय तेह जहाज ॥ ४६ ॥ भगवान ही नहीं, मुनि भी तरण तारण जहाज हैं ।
मुनि जीव- अजीव, नय-निक्षेप, निश्चय-व्यवहार आदि के ज्ञाता और स्व-पर का विवेक करनेवाले होते है ।
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वस्तु तत्त्वे रम्या ते निर्ग्रन्थ,
तत्त्व अभ्यास तिहां साधु पंथ; तिणे गीतार्थ चरणे रहिजे,
शुद्ध सिद्धान्त रस तो लहिजे ॥ ४७ ॥
'हम अपने आप सब प्राप्त कर लेंगे' इस भ्रम में कोई न रहे, अतः यहां अध्यात्मवेत्ता गीतार्थ गुरु की आवश्यकता बताई
कहे कलापूर्णसूरि १ *****
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