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- निश्चय से आत्मा पर का कर्ता है ही नहीं, आत्मगुणों का ही कर्ता है । फिर भी यदि परकर्तृत्व का अभिमान अपने उपर ले तो दण्डित होता है। न्यायालय में यदि कोई बोल जाये - 'मैंने चोरी की है' तो उसे अवश्य दण्ड मिलेगा, चाहे उसने चोरी नहीं की हो ।
स्वआत्मा उपादान कारण है । - सुदेव-सुगुरु आदि मुख्य कारण हैं । मुख्य कारण से उपादान कारण पुष्ट होता है ।
• छोटा व्यापारी बड़े व्यापारी से माल खरीदता है, उस प्रकार हमें प्रभु के पास गुणों का माल खरीदना है । व्यापारी तो फिर भी इनकार भी कर सकता है, उधार न भी दे । भगवान कभी इनकार नहीं करेंगे । खरीदने वाला थकेगा, परन्तु देनेवाले भगवान कभी नहीं थकेंगे । ऐसे दानवीर हैं भगवान ।
हम स्वयं अपनी आत्मा को गुणों (या दुर्गुणों) का दान करें वह सम्प्रदान हैं ।
अर्थात् नये गुणों का लाभ सम्प्रदान है । अशुद्धि की निवृत्ति अपादान है । ये दोनों साथ ही होते हैं । लाभ हुआ वह सम्प्रदान, हानि हुई वह अपादान । 'देशपति जब थयो नीति रंगी, तदा कुण थाय कुनय चाल संगी; यदा आतमा आत्मभावे रमाव्यो, तदा बाधकभाव दूरे गमाव्यो' ॥ ३१ ॥
'यथा राजा तथा प्रजाः ।' - राजा न्यायी होगा तो प्रजा भी न्यायी होगी । आत्मा जब स्वभावरंगी बनती है, तब कारकचक्र भी स्वभावरंगी बनता है। बाधकभाव अपने आप चला जाता है ।
'सहज क्षमा-गुण-शक्तिथी, छेद्यो क्रोध सुभट्ट,
मार्दव-भाव प्रभावथी, भेद्यो मान मट्ट
माया आर्जवयोगे लोभथी निःस्पृह भाव, मोह महाभट ध्वंसे ध्वंस्यो सर्व विभाव ॥ ३२ ॥ कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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