________________
जय जय नंदा जय भहा' के साथ अंतिम विदाय,
शंखेश्वर, दि. १८-२-२००२
२१-११-१९९९, रविवार
का. सु. १३
- 'सयल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगण आतमरामी रे'
संसार के समस्त प्राणी इन्द्रियों में आनन्द माननेवाले हैं । मुनि ही केवल आत्मा में आनन्द मानने वाले हैं । पतंगों को दीपक में स्वर्ण दिखाई देता है और उसमें कूद-कूद कर मृत्यु के मुंह में समा जाते है, उस प्रकार संसारी जीव इन्द्रियों के पीछे भावप्राणों को खतम कर देते हैं ।
पतंगा तो चौरिन्द्रिय है, उसकी भूल क्षम्य गिनी जाती है, परन्तु विवेकी मनुष्य के लिए यह लज्जाजनक नहीं है ?
- संस्कृत का अध्ययन तो हमने बाद में किया । उससे पूर्व हमारे लिए तो पू. आनन्दघनजी, पू. देवचन्द्रजी आदि का गुजराती साहित्य ही आधारभूत था । कितना उपकार किया है उन्होंने हम जैसों पर ?
आज-कल के बालक तो ऐसे तैयार हो रहे हैं कि उन्हें गुजराती, हिन्दी भी नहीं आता । उन्हें विदेशी भाषा अंग्रेजी आती है, परन्तु घर की भाषा नहीं आती । ऐसे व्यक्तियों पर उपकार कैसे करें ? यह भी प्रश्न हो रहा है ।
५७४ ****************************** कहे