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________________ पर ऐसे सुख, इन्द्र-चन्द्र आदि के सुख भी रोग प्रतीत होते है, क्योंकि उसने आन्तरिक सुख जान लिया है । ऐसे साधक में कभी दीनता नहीं होती । मेरे आत्मधन को कोई चुरा नहीं सकेगा, कोई राजा छीन नहीं सकेगा और कोई बलपूर्वक लूट सकेगा नहीं । फिर भय किस बात का ? जो मेरा है वह जानेवाला वहीं है। जो जाता है वह मेरा नहीं है। फिर भय किस बात का ? विणयमूलो धम्मो संसारना ताप, उत्ताप अने संताप ए त्रिविध दुःखथी मुक्त करावनार एक मात्र आत्मज्ञान छे. आत्मा ते ज्ञान-रहित छे नहि, पण जीवने हुं आवो सुख संपन्न, दुःख रहित, कोई अचिंत्य पदार्थ छु, तेवू भान नथी. गुरुगम वडे जिज्ञासु ए निधानने जाणे छे अने शुद्ध भाव वडे तेनो अनुभव करे छे. गुरुगम प्राप्तिनो उपाय विनय छे ५५२ ****************************** ***** कहे कलापूर्णसूरि - १ का
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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