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हूं, ऐसा नहीं, 'मैं नमता हूं' में अहंकार की सम्भावना है, 'नमस्कार हो' में नहीं ।
✿ काया समझदार है । वाणी भी समझदार है । हमारे कहते ही तुरन्त मान लेती हैं, परन्तु प्रश्न है मन का । हम कहें और मन मान ले, इस बात में माल नहीं है, जो मान ले वह मन नहीं हैं । काया के मान लेने से 'स्थानयोग' सिद्ध होता है । वचन के मान ले से 'वर्णयोग' सिद्ध हो जाता है, परन्तु यदि मन मान जाये तो ही अर्थ एवं आलम्बन योग सिद्ध होते हैं । मन चंचल होने से वह एक साथ अनेक कार्य कर सकता है । यहां मन को दो कार्य सौंपे गये हैं अर्थ एवं आलम्बन के । काया एवं वाणी से अनेक गुनी कर्म - निर्जरा मन करा देता है, और कर्म - बन्धन भी इतना ही कराता है ।
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'विषय- कषाय को समर्पित मन संसार बना देता है ।' 'भगवान को समर्पित मन भगवान से साक्षात्कार करा देता है । ' इसी लिए मोहराजा का प्रथम आक्रमण मन पर होता है, जिस प्रकार शत्रु सर्व प्रथम 'हवाई पट्टी' पर आक्रमण करता है । ✿ चैत्यवन्दन आप भगवान का करते हैं, ऐसा नहीं है, आप अपनी ही शुद्धचेतना का चैत्यवंदन करते हैं । भगवान अर्थात् आपका ही उज्ज्वल भविष्य । आपकी ही परम विशुद्ध चेतना | भगवान की प्रतिमा में हमें अपना भावी प्रतिबिम्ब निहारना है । उक्त सन्दर्भ में बिसरी हुई आत्मा का स्मरण करने की कला चैत्यवन्दन है ।
✿ चरित्र भुवनभानु केवली का हो या मरीचि का हो, उनके द्वारा की गई भूलों, भूलों के कारण प्राप्त दण्ड उन सब में अपना स्वयं का चरित्र देखें । उन्होंने शायद एकबार ही भूल की होगी । हमने तो अनन्त बार भूल की हैं । अब भविष्य में भूल न हों, यह हमें शीखना है । अन्तरात्मा एवं परमात्मा बाह्य आत्मा, इन तीन प्रकार के दूसरे जीव हैं यह बात नहीं है, परन्तु हम में स्वयं मे ये तीन अवस्था पड़ी हैं, यह समझे ।
यदि हम देह को आत्मा मानते हैं तो हम बहिरात्मा हैं ।
*** कहे कलापूर्णसूरि - १
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