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पांच प्रहर तक स्वाध्याय आदि न करें तो ज्ञान-कुशील का विशेषण मिल जायेगा ।
ज्ञान का फल विरति मिलता है तब वह ज्ञान सफल होता है। हमें जड़ से भिन्न बतानेवाला ज्ञान है । ज्ञान जीव का भावप्राण है ।
द्रव्य-प्राण चले जाते हैं, यहीं रह जाते हैं, परन्तु भाव-प्राण साथ ही रहते हैं । यदि भाव-प्राण न हों तो द्रव्य-प्राण का कोई मूल्य नहीं है । शव देखो । उसमें द्रव्य-प्राण है, परन्तु भाव-प्राण नहीं है । शव का कोई मूल्य नहीं है ।
. नाम इस देह का है फिर वह कल्पित है । आत्मा तो अनामी है । नाम केवल पहचान एवं व्यवहार के लिए है । इसके अलावा नाम की कोई उपयोगिता नहीं है। नाम लक्ष्मीचंद है और उसके पास लक्ष्मी का अभाव हो ऐसा भी होता है । नाम जीवनलाल हो और वह मृत्यु-शैया पर पड़ा हुआ हो यह भी बनता है। नाम ईश्वर हो और वह पूर्णतः कंगाल हो, ऐसा भी होता है। ऐसा हम चारों ओर देखते भी है, फिर भी इस नाम के लिए कितनी सिरपच्ची करते हैं ? लगभग आधा जीवन तो हम इस नश्वर नाम को अमर करने के पीछे व्यतीत कर देते है।
सम्यग्ज्ञान हमें सिखाता है कि इस नाम एवं रूप का मोह छोड़ो और अनामी तथा अरूपी प्रभु की उपासना करो ।
. ज्ञान-विहीन मनुष्य पशु कहलाता है । मनुष्य को पशु से भिन्न करनेवाला ज्ञान है ।
ज्ञान की उत्कृष्ट आराधना करके मनुष्य अपने भीतर विद्यमान दिव्यता को विकसित कर सकता है। ज्ञान से दूर रहकर वह 'पशुता' की श्रेणि में भी जा सकता है ।
• पहले बालक अध्ययन हेतु जाने से पूर्व सरस्वती की पूजा करते थे ।
सरस्वती का यहां कोई विरोध नहीं है। इसे हम 'श्रुत-देवता' कहते हैं । नित्य प्रतिक्रमण आदि में हम श्रुत-देवता का स्मरण करते हैं ।
श्रुतदेवता अर्थात् आगम । कहे कलापूर्णसूरि - १ *****
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