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वांकी दीक्षा प्रसंग १०२३, वांकी (कच्छ), दि. २१-०१-१९६७
११-११-१९९९, गुरुवार
का. सु. ३
. ग्रहण-आसेवन-शिक्षा से तैयार कर के गुरु शिष्य को बड़ी दीक्षा देते है ।
श्रावक कुल में उत्पन्न व्यक्ति ही दीक्षा ग्रहण कर सकता हो ऐसी बात नहीं है, जैनेतर ब्राह्मण आदि भी दीक्षा ग्रहण कर सकते हैं । उन्हें पृथ्वी आदि में भी चैतन्य है, ऐसी श्रद्धा कराने के बाद ही बड़ी दीक्षा देते हैं। उन्हें उसके लिए वनस्पति आदि में जीवत्व की सिद्धि तर्क पूर्ण रीति से समझाते हैं ।
१. पत्थर खान में खोदने के बाद ही बढता है । २. मैंढकों की तरह पानी भीतर से फूटता है । ३. अग्नि लकड़ेरूपी खुराक से बढ़ती है। ४. वायु किसीसे प्रेरित न होकर बहता है । ५. वनस्पति बढती है, पुनः उगती है, वृद्ध होती है, मरती है । यह सब समझा कर उसमें जीवत्व सिद्ध करते हैं । बड़ी दीक्षा के समय हितशिक्षा देते हुए गुरु कहते हैं - सम्मं धारिज्जाहि सीखा हुआ सम्यक् प्रकार से धारण करना ।
५३६ ******************************कहे