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यहां भाव-प्राणों की हिंसा नहीं है, क्योंकि यहां आत्मगुणों की रक्षा करने का उद्देश्य है । यदि यह मानने में नहीं आये तो साधर्मिक-भक्ति, प्रवचन-श्रवण आदि एक भी कार्य नहीं हो सकेगा । 'आत्मगुण रक्षणा तेह धर्म, स्वगुण-विध्वंसना तेह अधर्म; भाव अध्यात्म अनुगत प्रवृत्ति, तेहथी होय संसार-छित्ति' ॥ १७ ॥
दूसरे के द्रव्य-प्राणों की तरह भाव-प्राणों की भी रक्षा करनी है । उसे क्रोध न आये आदि की भी सावधानी रखनी है । क्या हम यह समझे हैं ?
इस प्रकार अध्यात्मानुसार प्रवृत्ति शुरू हो तब ही संसार का छेद शुरू होता है ।
द्रव्य से गुरु-निश्रा मिली हो वह नहीं, परन्तु गुरु में भगवबुद्धि, तारक-बुद्धि उत्पन्न हुई वह योगावंचकता है ।
ऐसी आत्मा प्रभु की वाणी सुनती है, श्रद्धा करती है और उस पर आचरण करती है ।
. मेघकुमार का जीव हाथी में से आया था । उसे प्रथम देशना से ही क्यों वैराग्य हुआ ? क्योंकि उसके जीव ने पूर्व भव में शशक की (खरगोश की) निष्काम भाव से दया की थी ।
१. संसार परिमित किया । २. मनुष्य जन्म प्राप्त किया । ३. तीर्थंकर जैसे गुरु प्राप्त किये ।
उसने ये तीन वस्तु प्राप्त कर ली । ऐसा पू. हरिभद्रसूरिजी ने उपदेशपद में कहा है।
यह अध्यात्मानुगत क्रिया कहलाती है ।
. यथाप्रवृत्तिकरण को अव्यक्त समाधि कहा गया है । अव्यक्त इसलिए कि अभी तक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया ।
. गुणों की अनुमोदना तथा उनके प्रति रुचि के द्वारा ही सदा गुणों की प्राप्ति होती है। उससे पूर्व गुण दरवाजे पर भी नहीं आते ।
कहे.
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