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________________ किया है । गुणों का विकास ही स्व-विस्तार कहलाता है । आत्मगुणों के बिना भव-भव भटकना ही है । भव-भ्रमण के फेरे बन्ध करने हों तो गुण प्राप्त करने ही पड़ेंगे । ममता दोष है, समता गुण है - यह समझ में आता है ? जानते हुए भी ममता बढाते रहें तो क्या कहें ? जहां मूर्छा आयेगी वहां ममता आयेगी ही । ममता से समाधि उद्वेलित हो जायेगी । समस्त दोषों ने गुणों को रोक दिया है। जहां गुण रह सकते है वहीं दोष रहते हैं । आत्म-प्रदेशों की जगह इतनी ही है । जो जो दोष हैं, उन्होंने गुणों का स्थान दबा दिया है, यह मानना । दोषों की केबिनेट हमारे भीतर डेरा डाले हुए है । वह जो निश्चय करती हैं, उन पर हम सिग्नेचर करते रहते है । क्या आप जानते हैं कि आत्मा की कर्तव्य, भोक्तृत्व, ग्राहक, रक्षक, शक्तियां आज कहां प्रवृत्त है ? शक्ति उल्टी चलती है अतः हम चाहे जो वस्तु एकत्रित करते रहते हैं । हम बच्चे जैसे हैं । चमकदार कंकड़ों को भी हम एकत्रित करने लग जाते हैं । इसी कारण से संसार की वृद्धि हो रही है । शशिकान्तभाई - संसार को नहीं, शासन को हरा-भरा रखने का आशीर्वाद मांगे । बीसवी शताब्दी का यह अन्तिम दीपावली पर्व है । गुरु के पास मत मांगिये, परन्तु मैं शासन को क्या दे सकता हूं, यह सोचें । दीपोत्सवी पर्व में संकल्प लें - छः अरब की जनसंख्या में जैन केवल एक करोड़ ही हैं । यह संख्या भी घटती जा रही है। यह हम पर बड़ा भारी उत्तरदायित्व है। एक छोटी सी चिट्ठी लिख कर संकल्प लिखें । मिशन एक्ट बनायें । __ आपके इस जीवन का ध्येय क्या है ? यह लिख कर बताओ । आपका संकल्प पूर्ण करने के लिए प्रकृति सहायता करने के लिए आ पहुंचेगी । प्रकृति का यह नियम है । ५२८ ****************************** कहे
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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