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का नाशक हैं। यहां अरिहंत, सिद्ध के साथ आचार्य, उपाध्याय, साधु भी हैं । उन्हें किया गया नमस्कार भी सर्व पाप नाशक है । साधु के दर्शन से केवलज्ञान भी होता ही है न ?
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आज्ञा भंग, अनवस्था के बाद तीसरा दोष है - 'मिथ्यात्व ।' भगवान की नहीं, अपनी बुद्धि से चलना मिथ्यात्व है ।
भगवान से, गुरु से अलग करने का काम मिथ्यात्व करता है । अपना अलग वर्ग खड़ा करना इत्यादि मिथ्यात्व का ही प्रभाव है । चौथा दोष – 'विराधना ।' ये चारों दोष अत्यन्त ही खतरनाक है ।
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संयम एवं आत्मा दोनों की इससे विराधना होती है । अशुभ कर्मों का अनुबन्ध पड़ता है, जो अनेक जन्मों तक चलता है । मरीचि ने उस कपिल को कहा था 'कपिल ! वहां भी धर्म है, यहां भी धर्म है।' इस वाक्य में आज्ञा-भंग आदि चारों दोष आ गये । इस समय तो ऐसे एक नहीं, अनेक मरीचि
शशिकान्त भाई
हैं, जो कहते हैं 'वहां भी धर्म है, यहां भी धर्म है ।' अरे, इससे भी वे लोग आगे बढ गये हैं । वे तो स्वयं को ही भगवान के रूप में बताते हैं ।
पूज्य श्री
मंत्र में जिस प्रकार अविधि आपत्ति को निमंत्रित करती है, उस प्रकार जिनाज्ञा में अविधि आपत्ति को निमंत्रित करती है । विधि की आराधना, अविधि का निषेध दोनों जिनाज्ञा में समाविष्ट हैं । विधि का पालन सम्यग् नहीं होता हो तो कम से कम दिल में दर्द तो होना ही चाहिये ।
जिनाज्ञा भंग करने से जिस प्रकार अनवस्था आदि चार दोष लगते हैं । उस प्रकार जिनाज्ञा का सम्यग् पालन करने से आज्ञापालन, व्यवस्था, सम्यक्त्व एवं आराधना आदि लाभ होते हैं । दूसरे लोग भी सन्मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं ।
हम ६-७ (छः- सात) वर्ष दक्षिण में रहे । वहां ऐसे लाभ देखने को मिले ।
अध्यात्म गीता
हमारा मनोरथ है एवंभूत नय से सिद्ध बनने का, परन्तु यह मनोरथ करानेवाले हैं संग्रह एवं नैगम नय ।
****** कहे कलापूर्णसूरि - १
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