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कम नहीं मिलता) वे गटर के समीप मन्दिर में भूत बने ।।
उस स्थान से गुजरने वाले अपने शिष्यों को प्रतिबोध देने के लिए अपनी (मूर्तिकी) जीभ बाहार निकाली और लप-लप करने लगे ।
साधु चौंक पड़े ।
यक्ष की मूर्ति बोली - 'मैं पूर्व भव का तुम्हारा गुरु हूं । रस की आसक्ति के कारण आज देवलोक में मेरी दुर्गति हुई है। अतः इस रसना (जीभ) से सावधान रहना ।
इसीलिए पंन्यासजी महाराज 'आयंबिल का तप, नवकार का जप और ब्रह्मचर्य का खप' इन तीनों पर विशेष बल देते थे ।
कम खाना - तन का विजय - आयुर्वेद का सार । गम खाना - मन का विजय - नीतिशास्त्र का सार । नम जाना - सर्व का विजय - धर्मशास्त्र का सार ।
. गृहस्थ जीवन में हम तीन समय भोजन करते थे (वापरते थे)। बड़ी दीक्षा के समय पू. आचार्य कनकसूरिजी को हम राधनपुर में मिले । सभी साधुओं को एकासणे करते देखकर हम अपने आप एकासणे करने लग गये ।
किसीने कहा नहीं था, किसीने जबरजस्ती नहीं की । एकासणा करने की अपने आप आदत पड़ गई । धर्म बलात्कार से कराने की वस्तु नहीं है ।
फिर तो एकासणा का अभिग्रह लिया; चाहे उपवास, छट्ट, अट्ठम या अट्ठाई का पारणा हो, परन्तु एकासणा ही होता था । जब तक शक्ति थी तब तक एकासणा ही किया । संघ के साथ जाते तब तो कितनी ही बार दोपहर में तीन-चार बजे भी एकासणे किये थे ।
जैसे ज्ञान की परम्परा है, उस प्रकार तप एवं संयम की भी परम्परा है । हम करेंगे तो ही यह परंपरा चलेगी।
अध्यात्म गीता :
किसी व्यक्ति को मिलना हो तो उसका पक्का पता प्राप्त करना पड़ता है । हम भगवान को मिलना चाहते है, परन्तु भगवान का स्वरूप जानने की कोई उत्कण्ठा नहीं है । आत्मा प्राप्त करनी है,
५०४ ****************************** कहे