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"पालक संघ
३-११-१९९९, बुधवार
का. व. ११
* ज्ञान अपना स्वरूप है । उसे क्षणभर भी कैसे छोड़ा जा सकता है ? स्वरूप हमें छोड़ेगा नहीं यह सच है, परन्तु जब तक मिथ्यात्व बैठा है, तब तक अज्ञान ही कहा जायेगा ।
. व्यवहार से जीवों के ५६३ भेद समझे हैं, निश्चय से समझना बाकी है।
प्रथम से ही निश्चय की बात की जाये तो कानजी मत की तरह दुरुपयोग हो सकता है । सातवे गुणस्थानों की बातें बालजीवों के समक्ष प्रस्तुत की गई और उन्हें कहा गया - 'यह क्रियाकाण्ड व्यर्थ है।'
'नयों का दुरुपयोग होने की सम्भावना से ही उसकी बात गौण की गई है।
परमात्मा के समान ही अपना स्वरूप है, इस नैश्चयिक बात का भी दुरुपयोग हो सकता है ।
. स्वाध्याय आदि विधिपूर्वक करने हैं । अविधि से हों तो मूर्खता होगी । रोग आदि भी हो सकते हैं । रुष्ट हुए देव उपद्रव कर सकते हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
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