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रसत्याग में विगइयें खाने की इच्छा का काय-क्लेश में सुखशीलता की इच्छा का और
संलीनता में शरीर को इधर-उधर हिलाने की इच्छा का रोध होता है ।
आभ्यन्तर तप
प्रायश्चित्त में दोष छिपाने की इच्छा का विनय में अक्कड़ बनकर रहने की इच्छा का वैयावच्च में स्वार्थपरता की इच्छा का स्वाध्याय में निन्दा-कुथली की इच्छा का ध्यान में मन की स्वच्छंद विचारणा करने की इच्छा का और
कायोत्सर्ग में मन-वचन-काया की चपलता की इच्छा का निरोध होता है ।
स्वाध्याय तप के बारह प्रकारों में स्वाध्याय जैसा तप नहीं है । 'सज्झायसमो तवो नत्थि ।'
स्वाध्याय बगीचे का कुंआ है जहां से जल प्राप्त होता रहता है । जिनवाणीरूपी जल यहीं से ही प्राप्त होता है न ?
'स्वाध्याय ताजा, उसके सभी योग ताजे ।
चौबीस ध्यान में से प्रथम ध्यान में आज्ञा-विचय आदि हैं । भगवान की आज्ञा स्वाध्याय के द्वारा जानी जाती है ।
- 'धम्मो मंगलमुक्किटुं' में स्वर्णसिद्धि भी विद्यमान है - ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है।
लोहे जैसे आत्मा को स्वर्ण बनानेवाला धर्म का स्वर्णसिद्धि रस है।
स्वाध्याय में दुष्ट ध्यान (आर्तध्यान आदि) की इच्छा का रोध होता है ।
प्रश्न : अन्य पदार्थों की इच्छा करनी पड़ती है । दुर्ध्यान तो अपने आप होता रहता है तो वह इच्छा रूप कैसे ?
उत्तर : दुर्ध्यान स्वयं इच्छारूप है । दुर्ध्यान करने की इच्छा
(कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ४५७)