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* चण्डकौशिक, गोशाला, संगम आदि चाहे जो कर जायें तो भी भगवान कुछ भी न करें यह कायरता कहलायेगी या वीरता ? सांसारिक दृष्टि से कायरता कहलायेगी, परन्तु लोकोत्तर दृष्टि से वीरता कहलायेगी ।
'क्षमा वीरस्य भूषणम् ।' लोकोत्तर सूत्र है । यह धर्म शत्रु पर दया करना सिखाता है ।
सन्निपात के रोगी को आप औषधि देने जाओ और वह थप्पड़ मारे तो भी क्रोध नहीं करते, क्योंकि आप रोगी की विवशता समझते हैं ।
भगवान भी संगम आदि की विवशता समझते हैं । मोह ने संगम आदि को पागल कर दिया है । पागल पर क्रोध क्या ?
यह दृष्टिकोण सामने रख कर जियें तो क्या किसी पर भी क्रोध आयेगा ?
. किसी भी व्यक्ति के जीवन में जब ऐसा संकल्प जगे 'मैं अब पाप नहीं करूंगा' तो समझ लें कि भगवान की कृपा उतर आई है।
पाप नहीं करने का विचार प्रभु की कृपा के बिना आ ही नहीं सकता।
* सम्यक्त्व प्राप्त होने पर प्रशम का सुख प्राप्त होता है, साथ ही दुःखी जीवों को देखकर होनेवाला दुःख भी बढता है - 'इन बिचारों को धर्म की प्राप्ति कब होगी ? ये कब सुखी होंगे ?' ऐसे विचारों से सम्यग्दृष्टि दुःखी होता है ।।
. नवपद का वर्णन तो आपने सुना, परन्तु क्या नवपद में स्थान प्राप्त करने की इच्छा हुई ? क्या नवपद की आराधना की इच्छा हुई ?
* यह कैसे मालुम पड़ेगा कि नवपद की आराधना से कर्म-क्षय हुआ कि नहीं ? कर्म कम होने का चिन्ह कषायहास है । कषाय घटते जाये तो आवेश मन्द होता जायेगा, मन प्रसन्न रहेगा, कर्म घटने के ये ही चिन्ह हैं।
खेद, संक्लेश, क्रोध, आवेश, विह्ललता आदि बढते रहें तो समझें कि कर्म बढ रहे हैं । 'क्लेशे वासित मन संसार...'
**** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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कहे