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ज्यों ज्यों कषायों के पर्दे (अनन्तानुबंधी आदि) हटते जाते हैं, त्यों त्यों आनंद बढता जाता है । सम्यकत्वी की अपेक्षा देशविरतिधर को, उसकी अपेक्षा सर्वविरतिधर को अनन्त-अनन्त गुना आनन्द होता है ।
कषायों के नाश से ऐसी समता उत्पन्न होती है जहां प्रियत्वअप्रियत्व नष्ट हो जाती है ।
यों तो ग्राहकों के सामने व्यापारी आदि भी समता रखते हैं, परन्तु वह समता आत्म-शुद्धि-कारक नहीं है । साधु की समता आत्म-शुद्धि कारक है ।
कषायों की मात्रा घटती जाती है त्यों त्यों समता की मात्रा बढती जाती है।
४, ५, ६, ७ इत्यादि गुणस्थानों में क्रमशः इस कारण ही आनन्द बढता जाता है । एक गुणस्थानक में भी शुद्धि के कारण अनेक प्रकार होते हैं ।
आनन्द श्रावक पांचवे गुणस्थानक की ऐसी सीमा पर पहुंचे थे, जहां उन्हें निर्मल अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ था । ऐसा अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ कि गौतमस्वामी जैसे भी एक बार विश्वास नहीं कर सके ।
___ कषाय-नाश के लक्ष्यपूर्वक हमारी साधना चलती ही रहे, चलती ही रहे तो आनन्द बढता ही रहे, बढता ही रहे, तेजोलेश्या बढती ही रहे । 'तेज' अर्थात् आनन्द, सुख ।।
. 'चय ते संचय आठ कर्मनो ।' चारित्त की नियुक्ति भद्रबाहुस्वामी ने इस प्रकार की है । च = चय रित्त = रिक्त (खाली करना) अनन्त भवों के कर्मों का कचरा खाली करे वह चारित्र ।
अब तक हमने कर्म का कचरा एकत्रित करने का ही कार्य किया है । चारित्र कचरा साफ करके हमें स्वच्छ करता है ।
कर्मों को एकत्रित करने का काम कषायों का है । चारित्र कचरा साफ करके हमें स्वच्छ बनाता है । कर्मों को साफ करने का काम चारित्र का है । दोनों में से क्या पसन्द करना है ? कषाय कि चारित्र ? ४५० ******************************
**** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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