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गुण-सम्पत्ति सत्ता में पड़ी हुई है । उसे प्रकट करने की इच्छा सम्यक्त्व है ।
. बन्ध : आय । उदय : व्यय । उदीरणा : बलात् व्यय ।
सत्ता : बेलेन्स; यह आपकी पैसों की भाषा में बात समझें । आत्मा की अनन्त वीर्य-शक्ति सत्ता में पड़ी हुई हैं ।
अध्यात्मशास्त्र कहता है - 'परमात्म-तत्त्व आपके नाम से बैंक में जमा है, आप चाहे जब उसे प्राप्त कर सकते हैं।'
परन्तु उसे प्राप्त करने की हमारी रुचि ही कभी नहीं होती । परन्तु इन समस्त बातों से क्या ? उस स्वरूप को प्राप्त करो । प्राप्त करने के लिए भरचक प्रयत्न करो । धुंएं से पेट नहीं भरेगा ।
प्रभु को कहें कि 'धुमाड़े धीजें नहीं साहिब, पेट पड्या पतीजे.'
साधुत्व जैसी उंची पदवी प्राप्त करके भी यदि परम तत्त्व की रुचि नहीं जगे तो तो फिर हो चुका ।
. वस्तु तत्त्व अर्थात् आत्म तत्त्व, परमात्म तत्त्व । इसका कारण है देव-गुरु की आराधना । इनके प्रति बहुमान उत्पन्न होना सम्यक्त्व है ।
हमारी समस्त क्रियाएं भीतर विद्यमान परम ऐश्वर्य को प्राप्त करने की लगन, उत्कण्ठा से उत्पन्न होनी चाहिये, तो ही वे क्रियाएं सक्रियाएं बनेंगी।
सम्यक्त्व अर्थात् भीतर निहित प्रभुता को प्रकट करने की तीव्र इच्छा ।
. 'शुद्ध देव, गुरु, धर्म परीक्षा..
सुदेव, सुगुरु, सुधर्म ही मेरे हैं। कुदेव, कुगुरु, कुधर्म आदि मेरे नहीं हैं। ऐसी श्रद्धा व्यवहार सम्यक्त्व हैं।
औपशमिक सम्यग्दर्शन पांच बार, क्षायोपशमिक असंख्य बार और क्षायिक सम्यग्दर्शन एक बार ही मिले, वह मोक्ष देकर ही
रहेगा ।
इस समय हमारे भाव क्षयोपशम के हैं । कितनी ही बार आते हैं और जाते हैं । इसीलिए हमें सावधानी रखनी हैं ।
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