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'अप्रमत्त जे नित रहे, नवि हरखे नवि शोचे रे; साधु सुधा ते आतमा, शुं मुंडे शुं लोचे रे ?'
जो नित्य अप्रमत्त रहते हैं, किसी भी प्रसंग पर हर्ष-शोक न करें, ऐसे शुद्ध साधु वे अन्य कोई नहीं, हमारी ही आत्मा हैं ।
बाह्य दृष्टि केवल साधु का वेष देखती है, परन्तु पण्डित उसका गुरु के प्रति समर्पण भाव देखकर उसकी साधुता निश्चित करते हैं ।
साधना के द्वारा सिद्धि को साधनेवाले साधु होते हैं । नवपद में साध्य, साधक तथा साधना तीनों हैं ।
देव साध्य, गुरु साधक एवं धर्म साधन हैं । अरिहंत - सिद्ध देव हैं । आचार्य, उपाध्याय, साधु गुरु हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप धर्म हैं ।
.. नवपद को भूलना अर्थात् हमारी आत्मा को भूलना । नवपद को याद करना अर्थात् अपनी आत्मा को याद करना ।
जिस प्रकार धागे में पिरोई हुई सुई नहीं खोती, उस प्रकार नवपदों के साथ जुड़ी हुई आत्मा नहीं खोती ।
सम्यग्दर्शन 'जिणुत्त-तत्ते रुइलक्खणस्स, नमो नमो निम्मल-दसणस्स ।'
गुणों को वन्दन करने से गुणी को भी वन्दन होता ही है। गुण-गुणी का अभेद है । वे गुणधारी अविरत सम्यग्दृष्टि हों तो भी नमस्करणीय होते हैं । नमस्कार उनकी अविरति को नहीं, उनके गुणों को है।
* अपथ्य आहार के सेवन से शरीर को हानि होती है, उस प्रकार अहंकार, ईर्ष्या, निर्दयता आदि से आत्मा को हानि होती है।
मैत्री आदि चार, ज्ञान आदि तीन, आदि आत्मा के पथ्य हैं ।
विपर्यास बुद्धि, हठ, वासना आदि मिथ्यात्व आत्मा के भयानक अहितकर अपथ्य हैं ।
पथ्य से भोजन के प्रति रुचि जगती है । अपथ्य से भोजन के प्रति अरुचि होती है ।
इसी प्रकार आत्मा को भी पथ्य से देव-गुरु-भक्ति आदि अत्यन्त ही प्रिय लगते हैं ।
***** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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