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केवल नाम लो तो भी कर्मों का क्षय होता है तो फिर ध्यान धरो तब तो पूछना ही क्या ?
ध्यान-विचार में पद ध्यान : पंचपरमेष्ठी का ध्यान और परम पद ध्यान : अपनी आत्मा में ही पंच परमेष्ठी देखना - इस प्रकार बताया गया है।
लखपति की सम्पत्ति के ध्यान से अथवा दर्शन से आप को एक भी रूपया तो नहीं मिलेगा परन्तु उल्टे कर्म चिपकेंगे ।
सेठ एवं सामन्तों की संपत्ति के ध्यान से आपको प्रातीत्यकी क्रिया लगती है, जबकि नवपद के ध्यान से आत्मा में ही वह ऋद्धि प्रकट होने लगती है ।
किसी भी कार्य में अन्तिम लक्ष्य यही होता है कि इन के जैसा मैं कैसे बनूं ?
नवपद के ध्यान में यही लक्ष्य होना चाहिये ।
सेठ की दुकान पर नौकरी करनेवाला नौकर भावना रखता हैं कि मैं सेठ बनूं । उस प्रकार यहां भी भावना होनी चाहिये कि मैं इनके समान कब बनूं ?
9 भगवान ने धर्म को वश में किया है। जिस प्रकार घुड़सवार घोड़े को वश में करता है । उसे देखते ही घोड़ा सीधा चलने लगता है। धर्म को भी भगवान ने इसी प्रकार अपने वश में किया है ।
भगवान के बिना आप कहीं से भी धर्म प्राप्त नहीं कर सकेंगे ।
भगवान की आत्मा अर्थात् शुद्ध आत्म-द्रव्य । द्रव्य कभी गुणों से अलग नही होता; जिस प्रकार वस्त्र कभी तन्तु-रूप आदि से अलग नहीं होता ।
आत्म-द्रव्य का गुण चेतना है । जानना, देखना उसका गुण है । यह स्व पर प्रकाशक है ।
सचराचर जानने पर भी आश्चर्य है - भगवान को जानने की कोई उत्सुकता नहीं होती । वे परम उदासीनता में स्थित होते हैं । केवलज्ञान प्राप्ति से पूर्व ही परम उदासीनता बारहवे गुणस्थानक में आ जाती हैं । वीतरागता आने के बाद ही सर्वज्ञता आती है । ____ कोई भी शक्ति अथवा लब्धि, जब तक उसका प्रयोग करके ४१२ ****************************** कहे
****** कहे कलापूर्णसूरि - 2