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पदवी दीक्षा का प्रसंग, वि.सं. २०५७, मार्ग.
सु. ५,
पालीताणा
१७-१०-१९९९, रविवार आ. सु.द्वि. ७
द्वादशांगी का सार ध्यान योग है । मूल उत्तर गुण ध्यान योग की सिद्धि के लिए है । ऐसा सिद्धर्षिगणि के द्वारा उपमिति में कहा गया हैं ।
श्रेणि के समय प्रबल ध्यान शक्ति होती है, जो स्वतः ही आयेगी, ऐसा मान कर बैठ जायें तो मरुदेवी की तरह कोई सब को श्रेणि नहीं मिल जाती ।
ध्यान दो प्रकार से सिद्ध होता हैं
अभ्यास से तथा सहजता से ।
अभ्यास से होनेवाले ध्यान को 'करण' कहते हैं और सहजता
से होने वाले ध्यान को 'भवन' कहते हैं ।
शाश्वती ओली में सिद्धचक्र यंत्र का ध्यान करना चाहिये । शरीर के दस स्थानोंमें से किसी भी स्थान पर ध्यान किया जा सकता है । प्राचीन काळ में इस प्रकार ध्यान किया जाता था । ‘सिरि सिरिवाल कहा' में सिद्धचक्र का ध्यान पूर्णरूपेण बताया है । इस विश्व में 'नवपद' के समान कोई आलम्बन नहीं है । जितने ध्यान के आलम्बन है उनमें 'नवपद' की तुलना कोई नहीं कर सकता । ( कहे कलापूर्णसूरि १ **************
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