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उस समय पूज्य प्रेमसूरिजी के पत्र आते रहते थे । अध्ययन करने के लिए आ जाओ ताकि शेष छेद सूत्र पूर्ण हो जाये ।
परन्तु पू. देवेन्द्रसूरिजी कहते - 'तुम चले जाओगे तो मेरा क्या होगा ?' हम जाने का विचार छोड़ देते, परन्तु जब अवसर आता तब अध्ययन कर लेते ।
वि. संवत् २०२५ में व्याख्यान के बाद पू.पं. मुक्तिविजयजी के पास (पू. मुक्तिचन्द्रसूरि के पास) पहुंच जाता, तीन चार घंटे पाठ लेता ।
आप भले तप करते हो, परन्तु चालू तप में सेवा नहीं की जाती, उपदेश नहीं दिये जाते, ऐसा नहीं है ।
आहार का पच्चक्खाण केवल हमको है । दूसरों को लाकर देने में पच्चक्खाण नहीं टूटता । टूटे तो नहीं, परन्तु सेवा से उल्टा वह पच्चक्खाण पुष्ट होता है ।
. नौकारसीमें दो आगार : अनाभोग एवं सहसागार ।
अनाभोग अर्थात् अनजाने में होना और सहसागार अर्थात् अचानक हो जाना ।
पोरसी में अन्य चार आगार :
प्रच्छन्नकाल, दिशामोह, साधु-वचन, सर्व समाधि प्रत्ययिक । ये चार बढे ।
प्रच्छन्नकाल में सूर्य ढक गया हो और समय का बराबर ध्यान न आये तब ।
दिशाभ्रम में सूर्य की दिशा भूल जाने पर गडबड हो जाये तब ।
साधु-वचन में साधु की उघाडा पोरसी सुनकर पोरसी का पच्चक्खाण समझ ले ।
सव्वसमाहिवत्तियागारेणं में प्राण-घातक वेदना होती हो, समाधि के लिए आवश्यकता पड़े, वैद्य अथवा डाकटर के पास आवश्यकता हो तब...।
पुरिमड्ढमें : एक आगार अधिक - ‘महत्तरागारेणं'
महान कार्य के लिए गुरु की आज्ञा से जाना पड़े, शक्ति न हो तो गुरु वपराये तो भी पच्चक्खाण नहीं टूटेगा ।
एकासणा में आठ आगार । कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
कहे
रे-१ ******************************३९९