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वर्णन किया गया है । जरूर पढना ।
* जैनेतरों का कथन है कि चितवृत्ति का निरोध ही ध्यान है । जैन- दर्शन कहता है कि अशुभ चित्तवृत्तियों को रोकना ध्यान है । 'क्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधो योगः (ध्यानम्) ।' पू. यशोविजयजी ने पातंजल योगदर्शन के सूत्र की अपनी टीका में 'क्लिष्ट' शब्द जोड़ा है ।
आगे बढकर चित्त को शुभ विचारों में प्रवृत्त कराना भी ध्यान है । एक प्रवृत्तिरूप है, दूसरा निवृत्तिरूप है ।
इसी अर्थ में प्रतिक्रमण आदि हमारी आवश्यक क्रियाएं ध्यानरूप हैं ।
'चतुर्विंशतिस्तव' : अर्थात् चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति । चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के द्वारा ही सामायिक (समता) प्राप्त होती है । अपने निकटतम उपकारी ये चौबीस तीर्थंकर है ।
लोगस्स बोलते हैं तब स्तुति होती है । लोगस्स का काउस्सग्ग करें तब ध्यान होता है । उसके अर्थ में मन एकाग्र होना चाहिये । काउस्सग्ग में मन, वचन एवं काया तीनों एकाग्र होते हैं ।
३. गुरु वन्दन : जितना महत्त्व भगवान का है, उतना महत्त्व भगवान के द्वारा स्थापित गुरु तत्त्व का है । इसलिए अपनी उपस्थिति में ही भगवान गणधरों की स्थापना करते हैं ।
अकेले देव से नहीं चलता, गुरु चाहिये । इक्कीस हजार वर्षों में देव एक ही । शेष समय में गुरु के बिना शासन कौन चलायेगा ? गुरु में भगवद्बुद्धि होनी चाहिये । इसीलिए 'इच्छकारी भगवन् !' यहां गुरु के समक्ष 'भगवन्' सम्बोधन हुआ है । 'करेमि भंते' यहां 'भंते' शब्द में देव एवं गुरु दोनों अर्थों का समावेश है ।
भगवान की देशना के बाद उनकी चरण पादुकाओं पर गणधर बैठते हैं । जब गणधर देशना देते है तब केवली भी बैठे रहते हैं । उठते नहीं हैं । श्रोताओं को यह प्रतीत नहीं होता कि यहां कोई कमी है । भगवान के समान ही गणधरों की वाणी प्रतीत होती है । सिर पर भगवान का हाथ है न ?
यह तो ठीक । कालिकाचार्य ने भी सीमंधरस्वामी के समान ही निगोद का वर्णन ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र के समक्ष किया था ।
कहे कलापूर्णसूरि १*****
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