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________________ - सम्यग्दृष्टि मानता है कि कोई मेरा अपराधी नहीं है, अपराधी है तो सिर्फ कर्म । इसके कारण ही कोई हमारा बिगाड़ता है । मेरे कर्म न हों तो कौन बिगाड़ सकता है ? कर्म भी क्यों ? कर्म करनेवाली मेरी आत्मा ही है न ? मैंने बुलाये तब ही आये न ? अन्यथा जड़ कर्म क्या करते ? - संवेग - सुर-नर के सुख, दुःखरूप लगे, मोक्ष ही, आत्म-सुख ही प्राप्त करने योग्य लगे । 'यदा दुःखं सुखत्वेन, दुःखत्वेन सुखं यदा ।' जब संसार का सुख दुःखरूप प्रतीत हो, दुःख सुखरूप प्रतीत हो तब ही समझें कि संवेग प्रकट हुआ है । संसार का समग्र सुख, स्वर्ग का सुख भी दुःखरूप प्रतीत हो वह संवेग है। इस समय साधु-जीवन में क्या कष्ट है ? कष्ट तो प्राचीनकाल में थे । इस समय तो हम राजकुमार जैसे सुकोमल बन गये हैं। बाईस परिषहों में से इस समय हम कितने सहन करते हैं ? अपने पूर्वज अनुकूलता को ठोकर मारनेवाले और प्रतिकूलता को निमंत्रण देनेवाले थे । यह मत भूलना । इस समय तो सम्पूर्ण शीर्षासन हो गया है । हम सभी प्रतिकूलता के द्वेषी और अनुकूलता के अभिलाषी बन गये हैं। थोड़ी सी ही प्रतिकूलता हमें आकुल-व्याकुल कर देती हैं । . निर्वेद - ___ नरक का जीव पलभर भी नरक में रहना नहीं चाहता । कैदी एक पलभर भी कैद में रहना नहीं चाहता, उस तरह संसार में सम्यग्दृष्टि एक क्षण भी रहना नहीं चाहता । वह प्रतिक्षण चाहता है कि संसार से कब मुक्त होउं ? पंचवस्तुक लोक में राजदूत आदि जिस प्रकार बताया हुआ कार्य पूर्ण होने पर पुनः वन्दन करके बताते हैं, उस प्रकार यहां प्रतिक्रमण में भी छठे आवश्यक में गुरु-वन्दन इसलिए है कि आपकी आज्ञानुसार (३९० ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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