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________________ | सामइबान प्रमशाला में चातुर्मासमालीसाणा, ज्ये १०,वि.सं. २०५६ १०-१०-१९९९, रविवार आ. सु. १ उत्तम धृति, उत्तम संघयण वाले के लिए श्रमण धर्म है, दूसरों के लिए श्रावक धर्म है । सम्यग्दर्शन से पूर्व तीर्थंकरों के भवों की भी गणना नहीं की गई तो हमारी तो बात ही क्या करें ? हम सब का भूतकाल अनन्त दुःखों से परिपूर्ण ऐसा एक समान है। अब यदि यहां प्रमाद करेंगे तो पुनः वही भूतकाल मिलेगा । उन्हीं दुःखों में पीड़ित होना पड़ेगा । पुनः पुनः उन्हीं स्थानों में, उन्हीं भावों में जाना वही चक्र है । संसारचक्र ही है। . उत्तम क्षमा, उत्तम मृदुता, उत्तम ऋजुता, उत्तम सन्तोष मिलने पर ही शुक्ल ध्यान के अंश की झलक मिल सकती है। . ग्यारहवे गुणस्थानक वाले भी गिरकर निगोद में जा सकते हैं तो जो कुछ मिला है उतने में सन्तोष मानकर हम प्रमाद में क्यों पड़ें ? • अप्रमत्त भाव से सतत आत्म-निरीक्षण करते रहें । माया क्यों हुई ? अभिमान कहां से आया ? क्रोध क्यों आया ? हम यदि आत्म-निरीक्षण नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? ३७८ ****************************** कहे
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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