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बन्दरी को उसका बच्चा लिपटा रहता है, अतः उसका काम हो गया । उसे कूदने की आवश्यकता नहीं रहती । हम भी यदि गुरु या अरिहंत को पकड़ कर रहें तो फिर भय किस बात का ? दुर्गति का भय कैसा? जो भगवान को पकड़ कर रहे वह दुर्गति में नहीं जाता ।
शशिकान्तभाई - 'हम आपको पकड़ कर रहे हुए हैं, सद्गति में ले जाओगे न ?'
पूज्यश्री : इसका नाम ही शंका । आप पकड़ कर रहें तो किसकी ताकत है जो दुर्गति में ले जाये ?
शशिकान्तभाई - मैं कहता हूं, आप 'हां' कहें । शंका नहीं है।
पूज्यश्री : यह भी शंका है। भोजन को प्रार्थना नहीं करनी पड़ती कि 'हे भोजन ! तू भूख मिटाना, तृप्ति देना । भगवान को प्रार्थना नहीं करनी पड़ती, यह उनका स्वभाव है, परन्तु हमें पूर्ण श्रद्धा नहीं है, इसीलिए शंका होती है, प्रश्न उठता है।
रेलगाडी पर कितना विश्वास है ? आप नींद कर लेते है, परन्तु ड्राइवर नींद मारने लग जाय तो? आपको ड्राइवर पर विश्वास है, लेकिन देव-गुरु पर विश्वास नहीं है । इसीलिए पूछना पड़ता है।
शशिकान्तभाई - मिच्छामि दुक्कडं ।
नहीं, इसमें आपने कोई गलत नहीं पूछा । आपने पूछा नहीं होता तो इतना स्पष्ट नहीं होता । लोगों को जानने को नहीं मिलता।
योगावंचक साधक फल प्राप्त करता ही है । गुरु के प्रति अवंचकता की बुद्धि ही योगावंचकता है ।
गुरु को देखे, उनके समीप बैठे, उनकी बात सुनी, वासक्षेप डलवाया, इतने मात्र से नहीं कहा जा सकता कि गुरु मिल गये ।
डीसा में एक ऐसे भाई मिले थे, जिन्होंने कहा, 'तीन-चार महिनों से आता हूं । एक भी प्रश्न पूछा नहीं, परन्तु मुझे समस्त प्रश्नों का उत्तर मिल गया है । _ 'प्रभु ! आप आदेश दें, मुझे क्या करना चाहिये ?' इस प्रकार वह कहने लगा था ।
- यह गुरु में भगवद्बुद्धि हुई कहलाती है । (कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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